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यापनीय संघ के गण और अन्वय : ४७ (३) विवाद का तीसरा आधार सम्भवतः स्त्री-दीक्षा भी हो सकता है। मलसंघ स्त्री को महावतारोहण रूप दीक्षा देने के विरोध में रहा होगा क्योंकि उसके द्वारा सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग सम्भव नहीं था। यह बात कुन्दकुन्द के एवं परवर्ती ग्रन्थों से पुष्ट होती प्रतीत होती है। मूलसंघ के आचार्यों ने यापनीय, द्रविड़ और माथुर संघ को इसलिए भी जैनाभास कहा था कि वे स्त्री को पंचमहाव्रत रूप दोक्षा प्रदान करते थे। सम्भवतः मूलसंघ स्त्री को केवल सामायिक चरित्र ग्रहण करने की अनुमति देता होगा, छेदोपस्थापनीय चारित्र अर्थात् महाव्रतारोपण की अनुमति नहीं देता होगा । आगे चलकर यही विवाद अधिक तीव्र हुआ और मूलसंघ के आचार्यों ने स्त्री-दोक्षा के साथ-साथ स्त्री-मुक्ति का भी निषेध कर दिया।
आज हमारे समक्ष ई. सन् की पांचवीं शताब्दी के पूर्व का कोई भी ऐसा साहित्य नहीं है जिसमें स्त्री-मुक्ति का प्रश्न जैन संघ में विवादास्पद बना हो । सर्वप्रथम लगभग पाँचवीं-छठी शताब्दी में कुन्दकुन्दकृत माने जाने वाले सुत्तपाहुड में स्त्री-मुक्ति के निषेध का प्रश्न उपस्थित होता है । स्मरण रहे कि पाश्चात्य विद्वानों ने इस ग्रन्थ के कुन्दकुन्दकृत होने में भी संदेह प्रकट किया है। यह प्रश्न विवादास्पद बनने पर सबसे पहले यापनीयों ने ही स्त्री-मुक्ति के पक्ष में तर्क देने प्रारम्भ किये होंगे और मूलसंघ के आचार्यों ने उनके विरोध में अपने तर्क दिये होंगे। श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थों में तो स्त्री-मुक्ति के प्रश्न की चर्चा सर्वप्रथम लगभग ८वीं शताब्दी से और वह भी यापनीय ग्रन्थों के आधार पर देखी जाती है। हरिभद्र जैसा समर्थ आचार्य भी स्त्री-मुक्ति के अपने पक्ष के समर्थन में यापनीयों के कथन को ही 'यापनीयतन्त्रे' कहकर उद्धृत करता है।
(४) इसके अतिरिक्त केवली-भुक्ति, केवली को कितने परीषह होते हैं आदि कुछ तात्त्विक मान्यताओं को लेकर भी दोनों में मतभेद रहा होगा।
किन्तु कालक्रम से जब मूलसंघ भी भट्टारक परम्परा के प्रभाव में आ गया तो आचार-मार्ग के जिन प्रश्नों को लेकर यापनीयों और मूलसंघ में विरोध था उसकी तीव्रता समाप्त हो गयी और सैद्धान्तिक प्रश्नों में भी कुछ बातों को छोड़कर दोनों में समन्वय होता गया। मूलसंघ के आचार्यों ने भी षट्खण्डागम, कषायपाहुड, तिलोयपण्णत्ति, भगवती
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