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४८ : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय
आराधना, मूलाचार जैसे यापनीय ग्रन्थों को मान्य कर लिया और आगे चलकर उन पर टीकायें भी लिखी। इस प्रकार निकटता बढ़ने और मूलसंघ के भट्टारकों के अतिप्रभावशाली होने के कारण धीरे-धीरे यापनीय संघ के विभिन्न आचार्य एवं गण मूलसंघ में आत्मसात् होते रहे । अभिलेखों में एक ही गण या संघ का दोनों परम्पराओं में समानरूप से पाया जाना इसी तथ्य का संकेतक है । चाहे यापनोय संघ के सभी आचार्य एक साथ मूलसंघ में प्रविष्ट नहीं हुए हों किन्तु कुछ आचार्य उनके प्रभाव में आते रहे।
यापनीय संघ के मूलसंघ में आत्मसात् होने की यह प्रक्रिया हमें पार्श्व के निर्ग्रन्थ संघ की महावीर के निर्ग्रन्थ संघ में आत्मसात् होने की प्रक्रिया का स्मरण करा देती है। जिस प्रकार पार्श्व का निर्ग्रन्थ संघ महावीर के निर्ग्रन्थ संघ में समाकर आज इतिहास की वस्तु हो गया उसी प्रकार यापनीय संघ भी आज इतिहास की वस्तु हो गया। जिस प्रकार पाश्वं के निर्ग्रन्थ संघ ने महावीर के निर्ग्रन्थ संघ के आचार-व्यवहार को अन्दर ही अन्दर काफी प्रभावित किया उसी प्रकार यापनीयों ने दक्षिण के निर्ग्रन्थ संघ या मूलसंघ के आचार-व्यवहार को भी प्रभावित किया। जिस प्रकार आज पार्श्व की परम्परा के आगम महावीर की परम्परा के अभिन्न अंग हो गये, उसी प्रकार सभी यापनीय ग्रन्थ दिगम्बरों में आगम तुल्य मान्य हो गये । आज इस मूलसंघ के अतिरिक्त अन्य सभी अचेलक संघ नामशेष हो गये हैं। यह मूलसंघ भी निर्ग्रन्थ अचेल परम्परा को मात्र ग्रंथों में या सिद्धान्त में ही जोवित रख सका,व्यवहार में नहीं । व्यवहार में निर्ग्रन्थ अचेल मुनियों की यह परम्परा सहस्राब्दि से अधिक कालतक विलुप्त रहकर आचार्य शान्तिसागरजी से लगभग आज से आठ दशक पूर्व पूनर्जीवित हई है। क्या ऐसा ही कोई प्राज्ञ संत यापनीय संघ की इस मूलधारा को भी व्यावहारिक रूप में पुनर्जीवित कर जैनों के साम्प्रदायिक भेदों के बीच समन्वय का सेतु निर्मित करेगा?
कूर्चक और यापनीय-जैसा कि हमने पूर्व में उल्लेख किया है मृगेश वर्मा के अभिलेख में निर्ग्रन्थ, कूर्चक और यापनीयों का एक ही साथ उल्लेख है । अतः यह सिद्ध होता है कि निर्ग्रन्थ, कूर्चक और यापनीय तीनों अलग-अलग सम्प्रदाय थे। कुर्चक सम्प्रदाय का इस अभिलेख के अतिरिक्त एक अन्य अभिलेख भी मिला है। इसमें कुर्चक संघ के अन्तर्गत वारिषेण आचार्य के संघ का स्पष्ट उल्लेख हुआ है। इस अभिलेख के
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