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यापनीय संघ के गण और अन्वय : ४३.
के साथ उल्लिखित मिलता है। इसी प्रकार यापनीय संघ के पुन्नागवृक्षमूलगण और काणूरगण का भी उल्लेख आगे चलकर मूलसंघ के साथ देखा जाता है। प्रो० गुलाबचन्द्र चौधरी ने इन्हीं आधारों पर यह कल्पना को है कि यापनीय संघ के विविधगण क्रमशः मूलसंघ अथवा द्रविड़ संघ द्वारा आत्मसात् कर लिये गये ।' यापनीय संघ का अन्य संघों से सम्बन्ध
मृगेशवर्मा के अभिलेखों में सर्वप्रथम हमें यापनीय, निग्रन्थ, कूर्चक और श्वेतपट महाश्रमण संघ ऐसे चार सघों के उल्लेख मिलते हैं । हल्सी के अभिलेख में यापनीय, निर्ग्रन्थ और कूर्चक ऐसे तीन संघ एक साथ उल्लिखित हैं। यह अभिलेख शान्तिवर्मा के ज्येष्ठ पुत्र मृगेशवर्मा का है और० सन् ५वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध का है । मृगेशवर्मा के देवगिरि से उपलब्ध एक अन्य अभिलेख में श्वेतपट महाश्रमण संघ और निर्ग्रन्थ महाश्रमण संघ ऐसे दो संघों का उल्लेख है । इसमें श्वेतपट महाश्रमणसंघ के साथ 'सद्धर्मकरणपरस्य' ऐसा विशेषण भी उल्लिखित है। यह अभिलेख भी पाँचवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध का ही है। किन्तु इन अभिलेखों से लगभग १०० वर्ष पूर्व से ही मूलसंघ का भी उल्लेख उपलब्ध होने लगता है। मूलसंघ का सर्वप्रथम उल्लेख नोणमंगल की ताम्रपट्टिकाओं पर हुआ है। इन ताम्रपट्टिकाओं पर गंगकुल के राजाओं को परम्परा देते हुए यह बताया गया है कि माधववर्मा 'द्वितीय' ने अपने राज्य के १३वें वर्ष में फाल्गुन शुक्ल पंचमी को आचार्य वीरदेव की सम्मति से मूलसंघ द्वारा प्रतिष्ठापित जिनालय में उक्तभूमि और कुमरिपुर ग्राम दान में दिया । पुनः नोणमंगल के ही पांचवी शती के पूर्वार्ध के एक अन्य संस्कृतकन्नड़ मिश्रित दानपत्र में कोंगणिवर्मा द्वारा अपने राज्य के प्रथमवर्ष की फाल्गुन शुक्ल पंचमी को परमाहत् उपाध्याय विजयकीर्ति की सहमति से मलसंघ के चन्द्रनन्दि आदि द्वारा प्रतिष्ठापित कोरिकून्द (देश) में उरनूर के जिनमन्दिर को वेन्नेल्करनि गाँव तथा चुंगी की आय का चतुर्थ भाग दान में दिया 14 विद्वानों ने यह दानपत्र सन् ४२५ ई०
१. जैनशिलालेखसंग्रह, भाग ३, भूमिका, पृ० ३० २. यापनि (नी)य निर्ग्रन्थकुर्चकानं"जैन शिलालेख संग्रह भाग २ ले०क्र० ९६. ३. वही, भाग ५, ले० क्र० ९८ ४. वही, भाग २, ले० क्र० ९० ५. वही, भाग ५, ले० ० ९४
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