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धर्मका स्वरूप
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रहा है, चमड़ेको छेदकर मांसको छेद रहा है, मांसको छेदकर नसको छेद रहा है, नसको छेदकर हड्डीको छेद रहा है, हड्डीको छेदकर घायल कर दिया है। अच्छा हो भन्ते ! आर्य, मातापिताकी अनुज्ञा के बिना किसीको दीक्षित न करें। "
इसके बाद महात्मा बुद्धने भिक्षुओंको एकत्रित किया और नियम बनाते हुए कहा
भिक्षुओ, माता-पिताकी अनुज्ञाके बिना पुत्रको दीक्षित न करना चाहिए; जो करे उसे दुक्कट (दुष्कृत) का दोष है ।
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आप देखें कि दीक्षाके मार्ग में यह रुकावट कितनी अच्छी थी ! महात्मा महावीरने तो यह रुकावट शुरू से ही रक्खी। इतना ही नहीं, अपने जीवन में ही उनने इसका पालन किया । माता-पिताकी अनुज्ञा के बिना वे कई वर्ष रुके रहे । आश्रम व्यवस्था, महात्मा बुद्धका अपवाद तथा इस विषय में महात्मा महावीरका प्रारम्भसे और महात्मा बुद्धका राहुलको दीक्षित करनेके बादका मध्य-मार्ग, ये तीनों अपने अपने देश - कालके लिए उपयोगी रहे हैं । इसलिए इन तीनों में कुछ विरोध नहीं कहा जा सकता ।
अब थोड़ासा विचार द्वैत और अद्वैतपर भी कीजिए | अद्वैतवादी कहता है कि सब जगत्का मूलं तत्त्व एक है, द्वैत भावना करना संसारका कारण है । इस प्रकारका विचार करनेवाला मनुष्य, यह मेरा स्वार्थ, वह दूसरेका स्वार्थ, यह विचार ही नहीं ला सकता । वह तो जगत् के हित में अपना हित समझेगा । जिस वैयक्तिक स्वार्थ के पीछे लोग नाना पाप करते हैं, वह वैयक्तिक स्वार्थ उसकी दृष्टिमें न रहेगा। वह निष्पाप बनेगा । द्वैतवादी कहेगा-मूल तत्त्व दो
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