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जैनधर्म-मीमांसा
उसे पददलित करना चाहता है ! तब वर्ण-व्यवस्थाका विरोध करना परम धर्म हो जाता है, क्योंकि यह व्यवस्था अब दुःखदायी हो जाती है । यही बात आश्रम-व्यवस्था की है । जब जीवनकी जिम्मेदारियोंसे मुँह छुपानेवाले अपने माता-पिताको रोते छोड़कर भागने लगे, समाज अनुत्तरदायी युवा साधुओंसे भर गया, तब आश्रम व्यवस्थाकी आवश्यकता हुई । यह नियम बनाया गया कि हरएक आदमीको पितृ ऋण चुकाना चाहिये, अर्थात्, माता-पिता की सेवा करना चाहिये और जिस प्रकार माता - पिताने उसे पालन किया है, उसी प्रकार उसे अपनी संतानका पालन करना चाहिये, पीछे वानः प्रस्थ रहकर सन्यासका अभ्यास करना चाहिये; फिर सन्यास लेना चाहिये | अब आप देखें कि यह व्यवस्था संसारकी भलाई के लिये कितनी अच्छी है ! परन्तु यदि राजकुमार सिद्धार्थ इसी व्यवस्थासे चिपटे रहते, तो वे महात्मा बुद्ध न बन पाते । उस समय जो महात्मा बुद्धके द्वारा समाज और धर्मका संशोधन हुआ वह न हो पाता । इसलिये महात्मा बुद्धने युवावस्था में ही गृह त्याग किया । यह भी संसारके कल्याणके लिये बहुत अच्छा हुआ । परन्तु यदि अपवादोंको राज- मार्ग बना दिया जाय, तो इसी कल्याणके कारण अकल्याण भी हो सकता है । जब महात्मा बुद्धने अपने पुत्र राहुलको भी छोटी उमर में दीक्षित कर लिया, तब उनके पिता महाराज शुद्धोदनने
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आकर कहा
“ भगवानके प्रव्रजित होनेपर मुझे बहुत दुःख हुआ था, वैसे ही नन्द के प्रत्रजित होनेपर भी । राहुलके प्रत्रजित होनेपर अत्यधिक । भन्ते ! पुत्र-प्रेम मेरी छाल छेद रहा है, छाल छेदकर चमड़े को छेद