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जैनधर्म-मीमांसा
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त्याग कर देना चाहिये* ' इस नीतिके अनुसार उस कालको देखते हुए यह अनुचित कहा नहीं जा सकता। जैनशास्त्रोंमें एक कथा प्रचलित है कि मुनिके उपदेश देनेपर भी जब एक भील किसी तरहका मांस छोड़नेको राजी न हुआ, तो उन्होंने उससे काक-मांसका ही त्याग कराया । इसका यह अर्थ नहीं है कि अन्य मांसोंका विधान कराया गया; सिर्फ शक्यानुष्ठानकी दृष्टिसे यह बात भी उचित समझी गई । इस दृष्टिसे मुहम्मद साहबके समयमें अरबकी स्थितिपर विचार करके इस्लामकी आलोचना करना चाहिये । परन्तु, भूल है उनकी, जो मुहम्मद साहबके अनुयायी होकरके भी मुहम्मद साहबकी दृष्टिपर विचार नहीं करना चाहते । शोधा हुआ संखिया असाधारण बीमारीमें दवाईका काम करता है; परन्तु बीमारीकी परिस्थिति हट जानेपर उसे कोई अपना भोजन बना ले, तो बीमार हो जायगा । ऐसी हालतमें हम उस वैद्यको बुरा न कहेंगे जिसने बीमारीके अवसरपर संखिया खिलाया; बुरा कहेंगे हम उन्हें, जिनने बीमारीके हट जानेपर भी संखियाको सदाके लिए भोजन बना लिया । मुहम्मद साहबके अनुयायी, जो कि भारतवर्ष में रहते हैं, अगर मुहम्मद साहबकी दृष्टि से काम लें तो वे कभी गो-वधका विधान न करें । मनुष्य-वधके युगमें पशु-वधका विधान क्षन्तव्य कहा जा सकता है। परन्तु जिस देशमें वनस्पात के स्पर्शमें भी घोर हिंसा माननेवाले हों उस देशमें पशु-वधके विधानकी क्या आवश्यकता है ? वहाँ तो यह पाप है । अगर हम इस बातको समझें,
* सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्धे त्यजति पंडितः ।