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नितान्त आवश्यकता है। इस युग में भौतिक-विकास तो अत्यधिक हुआ है, किन्तु इसके साथ ही अनेक समस्याएँ भी उत्पन्न हो रही हैं। ये समस्याएँ आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं पर्यावरण आदि क्षेत्रों में असन्तुलन एवं अव्यवस्थाएँ पैदा कर रही हैं। नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की उपेक्षा होने से व्यक्ति के समक्ष सम्यक दिशा का ही अभाव है। वह भागदौड़ अवश्य कर रहा है, किन्तु उसकी दौड़ अन्धी एवं अन्तहीन है। वह प्राप्त समय , समझ, सामर्थ्य एवं साधनों का अधिकाधिक उपयोग कर अल्प समय में ही कल्पनातीत विकास करना चाहता है, किन्तु वह यह नहीं समझ पा रहा है कि उसके जीवन का अंतिम लक्ष्य क्या है और इस लक्ष्य प्राप्ति का सम्यक् मार्ग क्या है? यद्यपि उसकी चाहना दुःख से मुक्ति एवं सुख की प्राप्ति ही है, फिर भी वह आत्मगत (Subjective) प्रयत्न करने के बजाय वस्तुगत (Objective) प्रयत्न करने में ही व्यस्त है। वह तृष्णा एवं इच्छा के जाल बुनकर स्वयं ही क्लेश एवं कलह से क्लान्त हो रहा है। वह चाहता है कि पूर्ण आनन्दमय जीवन की प्राप्ति हो सके, किन्तु वह अथक परिश्रम (Input) और प्राप्त परिणाम (Output) का सम्यक् समीक्षण भी नहीं कर पा रहा है। वह निम्बोली बोकर आम के मधुर फलों को पाने की चेष्टा कर रहा है। भौतिक विकास के मोह-पाश में फँसकर वह आत्मविनाश की दिशा में गतिशील है और उसके जीवन की स्थिति ऐसी है कि 'मानो मरने की फुरसत नहीं और पल का भरोसा नहीं। इन सभी समस्याओं के सम्यक् समाधान हेतु व्यक्ति को जीवन का सम्यक् प्रबन्धन करना आवश्यक है। इस हेतु जैनआचारमीमांसा के प्रबन्धन-सूत्र वर्तमान युग के लिए आधारभूत हैं, जिनकी चर्चा हमने प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में की है।
जीवन के दो मौलिक कर्तव्य हैं, पहला जीवन निर्वाह सम्बन्धी और दूसरा आत्म-कल्याण सम्बन्धी। जीवन निर्वाह सम्बन्धी कर्तव्यों के द्वारा व्यक्ति अपनी जीवनयात्रा को चलाने के साधनों की व्यवस्था एवं उनका उपभोग करता है और आत्म-कल्याण सम्बन्धी कर्तव्यों का निर्वाह कर वह आत्मा । को विकारों से मुक्त कर कल्याण के पथ पर अग्रसर होता है। पहला जैविक कर्तव्य है, तो दूसरा ।। आध्यात्मिक। जीवन-प्रबन्धन के लिए दोनों ही महत्त्वपूर्ण हैं। प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में इन कर्त्तव्यों के सफल निर्वहन के सूत्रों को जैनआचारमीमांसा के आधार पर प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है।
___ जीवन एक है, लेकिन जीवन के पहलू अनेक हैं – शिक्षा, शरीर, समाज, अर्थ, धर्म आदि। जीवन में प्राप्त होने वाली प्रत्येक परिस्थिति किसी न किसी पहलू से जुड़ी होती है। व्यक्ति जब जीवन-निर्वाह एवं आत्म-कल्याण सम्बन्धी कर्तव्यों की पूर्ति का प्रयत्न करता है, तो उसे जीवन के इन विविध पहलुओं को सन्तुलित, समन्वित एवं सुव्यवस्थित करना होता है। इन पहलुओं के साधक, साधन और साध्य - ये तीन विभाग हैं। साधक सम्बन्धी विभाग में शिक्षा, समय, मन, वचन - इन पाँच पहलुओं का समावेश होता है, साधन सम्बन्धी विभाग में समाज एवं पर्यावरण - इन दोनों पहलुओं का अन्तर्भाव होता है और साध्य सम्बन्धी विभागों में धर्म, अर्थ, काम (भोग) एवं मोक्ष - ये चार पहलू आते हैं। प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में इन ग्यारह पहलुओं में जीवन के सम्पूर्ण व्यवहार को समाहित करके उनके प्रबन्धन के उपायों की चर्चा की गई है।
जीवन-प्रबन्धन के लिए शिक्षा, समय आदि इन सभी जीवन पक्षों का पृथक्-पृथक् सम्यक्
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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