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देश या निवासी | अपरा-स्त्री० [सं०] अध्यात्म विद्याको छोड़कर शेष संपूर्ण बिद्या; लौकिक विद्या, वेद-वेदांगादि पश्चिमी दिशा । अपराग - पु० [सं०] अरुचि, असंतोष, शत्रुता । अपराजित - वि० [सं०] जो जीता न गया हो । अपराजिता - स्त्री० [सं०] दुर्गा; शेफालिका, जयंती, विष्णुकांता, शंखिनी आदि पौधे; अयोध्या नगरी । अपराजेय - वि० [सं०] जो जीता न जा सके । अपराद्ध - वि० [सं०] जिसने अपराध किया हो; जो । निशाना चूक गया हो; दोषी, गलती करनेवाला; अतिक्रांत । - नरहत्या - स्त्री० ( कल्पेविल होमिसाइड ) ऐसी नरहत्या जो अपराध मानी जाय तथा जिसके लिए दंडकी व्यवस्था हो ।
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अपराध-पु० [सं०] दोष; दंड योग्य कर्म; जुर्म; गलती; पाप । - भंजन- पु० अपराधों या पापों का नाश करनेवाला; शिव । - लेखा-पु० (हिस्ट्री शीट) दे० ' वृत्तफलक' - विज्ञान - पु० (क्रिमिनॉलॉजी ) वह विज्ञान जिसमें अपराध करनेके प्रेरक कारणों तथा निवारक उपायोंका विवेचन हो । - शील- वि० (क्रिमिनल) जो अपराधोंकी ओर प्रवृत्त हो, जो अपराध करते रहनेका आदी हो ( जैसे - अपराधशील जन-जातियाँ ) । -स्वीकरण - पु० ( कन्फेशन ) पुरोहित इत्यादिके सामने अपना अपराध या पाप स्वयं स्वीकार करना; वह कथन जिसमें अपना अपराध स्वीकार किया गया हो । अपराधी ( ( धन्) - वि० [सं०] अपराध करनेवाला; दोषी । अपराद्ध - पु० [सं०] उत्तरार्द्ध ।
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अपरावर्तनीय - वि० ( नॉन-ट्रांसफरेबल) दे० 'अहस्तां
अपरिचित - वि० [सं०] जिससे परिचय न हो, अज्ञात; अनभिज्ञ; परिचयहीन; अजनबी ।
अपरिच्छद - वि० [सं०] वस्त्रहीन; फटेहाल, गरीब अपरिच्छन्न, अपरिच्छादित-वि० [सं०] आवरणरहित, जो ढका न हो, नंगा | अपरिच्छिन्न-वि० [सं०] अंतररहित, मिला हुआ; सीमारहित; विभागरहित । अपरिच्छेद - पु० [सं०] विभाग, बिलगाव या सीमाका अभाव; क्रम या व्यवस्थाका अभाव, नैरंतर्यः विचार या विवेकका अभाव | अपरिणत - वि० ज्योंका त्यों । अपरिणाम-पु० [सं०] विकारराहित्य । - दर्शी (शिंन्) - वि० अदूरदर्शी । अपरिणामी (मन) - वि० [सं०] जो बदले नहीं, निविं
[सं०] अनपका, कच्चा अपरिवर्तित,
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अपरा - अपवर्त्य
कार, एकरस ।
अपरिणीत- वि० [सं०] अविवाहित, काँरा । अपरिपक्क - वि० [सं०] कच्चा, पक्का नहीं, अधकचरा । अपरिमित वि० [सं०] बे-हद; बे-हिसाव; अत्यधिक । अपरिमेय - वि० [सं०] जिसकी तोल-नाप न हो सके, -अंदाज; अनगिनत ।
अपरिवर्तनीय - वि० [सं०] न बदलनेवाला; अटल; अवइयंभावी; जो बदले में न दिया जा सके । अपरिवर्तित - वि० [सं०] जिसमें कोई परिवर्तन, हेर-फेर न हुआ हो; अविकृत ।
अपरिवाद्य - वि० [सं०] जो भर्त्सना के योग्य न हो । अपरिवृत - वि० [सं०] जो चारों ओरसे घिरा न हो ( खेत ); अपरिच्छन्न ।
अपरिष्कृत - वि० [सं०] जो माँजा-धोया न गया हो; मैला भद्दा; असंस्कृत ।
अपरिहार्य - वि० [सं०] जिसका परिहार न हो सके, अनिवार्य; अवश्यंभावी; अत्याज्य ।
अपरीक्षित - वि० [सं०] जिसकी परीक्षा न हुई हो, न आजमाया हुआ; मूर्खतापूर्ण, विचारशून्य; अप्रमाणित । अपरुष - वि० [सं०] क्रोधरहित; अकठोर, मृदुल । अपरूप-वि० [सं०] कुरूप, भद्दा अपूर्व ( बँगला ) | पु० भद्दापन, कुरूपता ।
अपरोक्ष-वि० [सं०] जो परोक्ष न हो, प्रत्यक्ष, इंद्रियगोचर; जो दूर न हो !
अपर्णा - स्त्री० [सं०] पार्वती ( शिवकी प्राप्तिके निमित्त तप करते समय पहले तो पत्ते खाती रहीं, किन्तु आगे चलकर उन्होंने पत्तोंका खाना भी छोड़ दिया, इसीसे अपर्णा नाम पड़ गया । ); दुर्गा |
तरणीय' ।
अपराह्न-पु० [सं०] दोपहर के बादका काल, तीसरा पहर | अपर्याप्त - वि० [सं०] नाकाफी; अधूरा; असीम; अयोग्य अपराह्न - पु० दे० 'अपराह्न ' । अपलक - अ० एकटक, निर्निमेष । अपरिग्रह - पु० [सं०] दानका अस्वीकार; शरीरयात्रा के लिए जितना आवश्यक हो उससे अधिक पैसा, अन्न आदि न लेना; निर्धनता; योगदर्शनोक्त यभोंमेंसे एक । अपरिचय - पु० [सं०] परिचयका अभाव, जान-पहचान न होना ।
अपलक्षण-पु० [सं०] कुलक्षण; अव्याप्ति अथया अतिव्याप्ति-दोषयुक्त लक्षण ।
अपलाप - पु० [सं०] छिपाना; (दोषादिसे) इनकार करना; सत्यका गोपन; बेमतलबकी बकवास । अपलाभ - पु० (प्रोफिटियरिंग) जनताकी या सरकारकी विपत्ति से अनुचित लाभ उठानेकी चेष्टा ।
अपलेखन - पु० ( राइटिंग ऑफ ) ऋण या पावनेकी रकम वसूल न होनेकी आशा न रह जानेपर उसे रद्द कर देना, बट्टे खाते डाल देना । अपलोक* - पु० अपवाद; बदनामी । अपवचन-पु० [सं०] निंदा, अपशब्द | अपवर्ग- पु० [सं०] मोक्ष, निर्वाण; त्याग; दान | अपवर्जन- पु० [सं०] त्याग; दान; चुकाना (ऋण आदि) । अपवर्जित - वि० [सं०] त्याग किया हुआ; दिया हुआ । अपवर्तक - वि० [सं०] सामान्य विभाजक | अपवर्तन- पु० [सं०] परिवर्तन; हटाना, स्थानांतरण; निःशेष भाग; विभाजकः ।
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अपवर्तित - वि० [सं०] परिवर्तित; हटाया हुआ, पृथक् किया हुआ; सामान्य विभाजकसे निःशेष विभक्त किया हुआ । अपवर्त्य - वि० [सं०] जिसका सामान्य विभाजकसे निःशेष