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अर्जुन के विषाद का मनोविश्लेषण -
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सोचते होंगे कि हम विकास हैं। वे भी सोचते होंगे कि हमारे बीच खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूं। और हे केशव! लक्षणों से कुछ लोग गड़बड़ हो गए हैं, विक्षिप्त हो गए हैं; इनका दिमाग को भी विपरीत ही देखता हूं तथा युद्ध में अपने कुल को खराब हो गया है। सिवाय परेशानी के...क्योंकि जब कोई पशु मारकर कल्याण भी नहीं देखता । हे कृष्ण! मैं विजय को देखता होगा कि आदमी साइकियाट्रिस्ट के दफ्तर में जाता है, नहीं चाहता और राज्य तथा सुखों को भी नहीं चाहता। आदमी मनोवैज्ञानिक के पास अपने मन की जांच के लिए जाता है; हे गोविंद! हमें राज्य से क्या प्रयोजन है, जब देखते होंगे आदमी पागलखाने खड़े करता है; और जब देखते अथवा भोगों से और जीवन से भी क्या प्रयोजन है। होंगे कि यह आदमी दिन-रात चिंता में जीता है, तो पशु भी कभी सोचते होंगे। कभी न कभी उनकी जमात बैठती होगी और वे सोचते होंगे कि इन बेचारों को कितना समझाया था कि मत आदमी बनो। 27 र्जुन के अंग शिथिल हो गए हैं। मन साथ छोड़ दिया नहीं माने हैं, और फल भोग रहे हैं! जैसा कि पिता अक्सर बेटों के ग है। धनुष छूट गया है। वह इतना कमजोर मालूम पड़ संबंध में सोचते हैं।.
रहा है कि कहता है, रथ पर मैं बैठ भी सकूँगा या नहीं, पशु पिता हैं, हम उसी यात्रा से आते हैं। जरूर सोचते होंगे कि | इतनी भी सामर्थ्य नहीं है। यहां दो-तीन बातें समझनी जरूरी हैं। कितना समझाया, लेकिन बिगड़ गई है यह जेनरेशन, यह पीढ़ी | ___ एक तो यह कि शरीर केवल हमारे चित्त का प्रतिफलन है। गहरे भटक गई। लेकिन उन्हें पता नहीं कि इस भटकाव से संभावनाएं | | में मन में जो घटित होता है, वह शरीर के रोएं-रोएं तक फलित हो खुल गई हैं। इस भटकाव से एक बड़ी यात्रा खुली है। जाता है। यह अर्जुन बलशाली इतना, अचानक ऐसा बलहीन हो
स्वभावतः, जो घर बैठा है, वह उतना परेशान नहीं होता। जो | | गया कि रथ पर बैठना उसे कठिन मालूम पड़ रहा है! क्षणभर पहले यात्रा पर निकला है, वह परेशान होता है। राह की धूल भी है, राह | | ऐसा नहीं था। इस क्षणभर में वह बीमार नहीं हो गया। इस क्षणभर के गड्ढे भी हैं, राह की भूलें भी हैं, राह पर भटकन भी है। अनजान | | में उसके शरीर में कोई अशक्ति नहीं आ गई। इस क्षणभर में वह रास्ता है, पास कोई नक्शा नहीं। अनचार्टर्ड है, खोजना है और | | वृद्ध नहीं हो गया। इस क्षणभर में क्या हुआ है? चलना है; चलना है और रास्ता बनाना है। लेकिन जो चलेंगे, | इस क्षण में एक ही घटना घटी है. उसका मन क्षीण हो गया: भूलेंगे, भटकेंगे, गिरेंगे, दुखी होंगे, वे ही पहुंचते भी हैं। | उसका मन दुर्बल हो गया; उसका मन स्व-विरोधी खंडों में
अर्जुन स्वाभाविक है मनुष्य के लिए। लेकिन अर्जुन खुद पीड़ा | विभाजित हो गया। जहां मन विभाजित होता है विरोधी खंडों में, से भरा है। वह भी मनुष्य होने की इच्छा में नहीं है। वह कहता है | | तत्काल शरीर रुग्ण, दीन हो जाता है। जहां मन संयुक्त होता है एक या तो दुर्योधन हो जाए, या तो कोई समझा दे कि जो हो रहा है, सब | | संगीतपूर्ण स्वर में, वहां शरीर तत्काल स्वस्थ और अविभाजित हो ठीक है। या कोई ऊपर उठा दे अर्जुन होने से। उसकी चिंता, उसका | | जाता है। उसके धनुष का गिर जाना, उसके हाथ-पैर का कंपना, दुख, उसकी पीड़ा वही है।
उसके रोओं का खड़ा हो जाना, सूचक है। इस बात का सूचक है कि शरीर हमारे मन की छाया से ज्यादा नहीं है।
नहीं, पहले ऐसा खयाल नहीं था। वैज्ञानिक कहते रहे हैं कि मन गाण्डीवं संसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते । हमारा शरीर की छाया से ज्यादा नहीं है। जो इस भ्रांत-चिंतन को न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः । ।३०।। मानकर सोचते रहे, वे लोग भी यही कहते रहे हैं। बृहस्पति भी यही
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव । कहेंगे, एपिकुरस भी यही कहेगा, कार्ल मार्क्स और एंजिल्स भी न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।।३१।। यही कहेंगे, कि वह जो चेतना है, वह केवल बाई-प्राडक्ट है। वह __ न कांक्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च । जो भीतर मन है, वह केवल हमारे शरीर की उप-उत्पत्ति है; वह किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैजीवितेन वा ।। ३२ ।। केवल शरीर की छाया है। तथा हाथ से गांडीव धनुष गिरता है और त्वचा भी बहुत अभी अमेरिका में दो मनोवैज्ञानिक थे, जेम्स और लेंगे। उन्होंने जलती है तथा मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है। इसलिए मैं | एक बहुत अदभुत सिद्धांत प्रतिपादित किया था, और वर्षों तक