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- पूर्व की जीवन-कलाः आश्रम प्रणाली -
कर रहे हैं। फिर ये आराम करते बच्चे अगर युनिवर्सिटीज में आग | | जिससे सर्वाधिक आशा रखी जानी चाहिए। लगाएं, अगर ये आराम करते बच्चे पत्थर फेंकें, कांच फोड़ें, तो इस ब्रह्मचर्य के काल में एक तीसरी और प्रक्रिया थी, जो आपको कुछ आश्चर्य नहीं है। इनके पास काम नहीं है। ये बिलकुल बेकाम खयाल दिला दं, वह भी जीवन का हिस्सा थी। इस ब्रह्मचर्य के काल हैं। इन्हें कुछ काम चाहिए। इन्हें कुछ तोड़ने को चाहिए। ये जंगल | में चाहे किसी परिवार से कोई व्यक्ति आए, जीवन साम्यवादी था, की लकड़ी काट लेते थे, तब ये गुरु के झोपड़े पर पत्थर नहीं फेंकते कम्यून का था। गरीब का हो, अमीर का हो, सम्राट का लड़का हो, थे। लकड़ी काटने में ही इनकी इतनी शक्ति लग जाती थी, इतने | कोई भी हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था। ब्रह्मचर्य के पच्चीस वर्ष हलके हो जाते थे। अब काटने-पीटने, ठोंकने जैसा कुछ भी उनके सहजीवन के वर्ष थे और समान जीवन के वर्ष थे। सम्राट का लड़का हाथ में नहीं है, अब वे पत्थर फेंक रहे हैं।
भी लकड़ियां चीरता, वह भी गाय-बैल को चराने जाता, वह भी पहला आश्रम. जब कि व्यक्ति के जीवन में प्रभात है शक्ति का. गोबर से सफाई करता, वह भी गरु के पैर दबाता। ये पच्चीस वर्ष शक्ति के संचय. प्रयोग. क्षमता के विकास का समय है. विश्राम कम्यन के. समानता के वर्ष थे। और इन पच्चीस वर्ष में जो भी हृदय का नहीं। विश्राम का समय धीरे-धीरे आएगा। आखिरी क्षण, में प्रविष्ट हो जाता है, वह जीवनभर साथ रहता है। इसलिए चाहे जिंदगी के सूर्यास्त के समय विश्राम का क्षण होगा। तो हम पचहत्तर | समाज में असमानता दिखाई पड़ती रही हो, व्यक्तियों के चित्तों में साल के बाद आखिरी संन्यास के आश्रम में पूर्ण विश्राम की | कभी असमानता नहीं थी। और समानता की कोई पागल प्यास भी व्यवस्था किए थे—पूर्ण विश्राम। पहला पूर्ण श्रम, अंतिम पूर्ण | | नहीं थी। जिसको स्पर्धा कहें दूसरे से, वह पच्चीस वर्ष में इस अर्थों विश्राम। बीच में दो सीढ़ियां थीं।
में पैदा ही नहीं हो पाती थी, क्योंकि सब समान था। इसलिए हमने इस पहले को एक तरफ से और समझ लें, कि व्यक्ति का जो एक नान-कांपिटीटिव, एक स्पर्धामुक्त, महत्वाकांक्षा-शून्य समाज भी विकास है, वह करीब-करीब पच्चीस वर्ष में पूरा हो जाता है। के निर्माण का प्राथमिक आधार रखा था। मनोवैज्ञानिक तो कहते हैं, और जल्दी पूरा हो जाता है। इसलिए | दूसरा आश्रम था गृहस्थ का। शायद इस पृथ्वी पर इस देश ने विकास इसके पहले कि पूरा हो जाए, व्यक्ति की पूरी | | मनुष्य को जितनी वैज्ञानिकता से स्वीकार किया है, इतनी वैज्ञानिकता पोटेंशियलिटी को जगा लेने की कोशिश की जानी चाहिए। इसके | से किसी ने कभी स्वीकार नहीं किया है। अब कैसी हैरानी की बात पहले कि विकास का क्षण बीत जाए, व्यक्ति के भीतर जो भी | | है कि पच्चीस वर्ष तक हम उसे ब्रह्मचर्य का पाठ देते और पच्चीस शक्ति छिपी है बीजरूप, वह सब वक्षरूप बन जानी चाहिए. वह साल के बाद उसे गहस्थ जीवन में भेज देते-विवाहित, वास्तविक हो जानी चाहिए। इसलिए रत्तीभर विश्राम का मौका कामवासना, इंद्रियों के सुख में प्रवेश का मौका देते। पच्चीस वर्ष में नहीं था। सतत श्रम था। कठोर श्रम था। अथक श्रम ___ कोई कहेगा, यह क्या पागलपन है! पच्चीस वर्ष तक जब था। और इसके दो परिणाम होते थे। एक तो वह व्यक्ति अपनी पूरी | | ब्रह्मचर्य सिखाया, तो अब क्यों उसे भेज रहे हैं? ब्रह्मचर्य उसे शक्तियों को जगाकर जीवन में जाने के योग्य हो जाता। और दूसरा, | सिखाया ही इसलिए कि अब वह तौल भी सकेगा कि आनंद इसके बाद जीवन उसे जो भी देता, वह उसके लिए संतोष और | | ब्रह्मचर्य में है कि वासना में! और जो आनंद उसने ब्रह्मचर्य में आनंद बनता।
जाना, वह आनंद वासना से कभी नहीं उसे मिल सकेगा। इसलिए आज की दुनिया में कोई भी चीज संतोष नहीं बन सकती। आज वासना सिर्फ कर्तव्य रह जा लिए वासना कभी भोग की हमारी सारी व्यवस्था ऐसी है कि हर चीज असंतोष ही बनेगी। उसे | | तृष्णा नहीं बनेगी, मात्र कर्तव्य रह जाएगी। और उसके प्राणों का असंतोष बनना ही पड़ेगा। क्योंकि संतोष की एक कला थी, वह | | पंछी निरंतर इसी आशा में रहेगा कि कब पचास वर्ष पूरे हो जाएं जीवन के क्रम के साथ थी। जब वृक्ष पर फूल आते हैं, तभी आने | और मैं ब्रह्मचर्य की दुनिया में वापस लौट जाऊं। इसलिए चाहिए। और जब वृक्ष के पत्ते झड़ते हैं, तभी झड़ने चाहिए। जब | कामवासना का जितना सुख हम सोचते हैं, इतना सुख...! वृक्ष बूढ़ा हो जाए, तब हमें उससे वैसी आशा नहीं रखी चाहिए, जिन लोगों के जीवन में ब्रह्मचर्य की किरण उतरी, उन्हें हैरानी जैसे जब वृक्ष जवान था, तब हमने आशा रखी थी। आज बड़ी | | होती है कि पागल हैं आप! लेकिन आपके पास तुलना का कोई हैरानी की बात है कि आज जवान से हम कोई आशा ही नहीं रखते, उपाय भी तो नहीं है। ब्रह्मचर्य का तो कोई आनंद कभी जाना नहीं,
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