________________
गीता दर्शन भाग-1 4
अब लौटते में और भी बड़ा चमत्कार हुआ है। पूरा भोजन कर गया तुम्हारा तपस्वी और नदी ने फिर भी राह दी है और हमने यही कहा कि उपवासा हो जीवनभर का...।
कृष्ण ने कहा, तपस्वी जीवनभर का उपवासा ही है, तुम्हारे भोजन करने से कुछ बहुत फर्क नहीं पड़ता। पर वे सब पूछने लगीं कि राज क्या है इसका ? अब हमें नदी में उतनी उत्सुकता नहीं है। अब हमारी उत्सुकता तपस्वी में है। राज क्या है? उससे भी बड़ी घटना, नदी से भी बड़ी घटना तो यह है कि आप भी कहते हैं। तो 'कृष्ण ने कहा, जब वह भोजन कर रहा था, तब भी वह जानता था, मैं भोजन नहीं कर रहा हूं; वह साक्षी ही था । भोजन डाला जा रहा है, वह पीछे खड़ा देख रहा है। जब वह भूखा था, तब भी साक्षी था; जब भोजन लिया गया, तब भी साक्षी है। उसका साक्षी होने का स्वर जीवनभर से सधा है। उसको अब तक डगमगाया नहीं जा सका। उसने आज तक कुछ भी नहीं किया है; उसने आज तक कुछ भी नहीं भोगा है; जो भी हुआ है, वह देखता रहा है। वह द्रष्टा ही है। और जो व्यक्ति साक्षी के भाव को उपलब्ध हो जाता है, इंद्रियां उसके वश में हो जाती हैं।
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः । मनसस्तु परा बुद्धियों बुद्धेः परतस्तु सः ।। ४२ ।। (इस शरीर से तो) इंद्रियों को परे (श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म) कहते हैं (और) इंद्रियों से परे मन है और मन से परे बुद्धि है और जो बुद्धि से (भी) अत्यंत परे है, वह आत्मा है।
कृ
ष्ण कहते हैं अर्जुन से कि और यदि तू ऐसा सोचता हो कि तेरी शक्ति के बाहर है इंद्रियों को वश में करना, तो तू गलत सोचता है, तू भूल भरी बात सोचता है। इसे थोड़ा समझ लें। हम सब भी ऐसा ही सोचते हैं, इंद्रियों को वश में करना कठिन है। लेकिन यह ऐसी ही नासमझी की बात है। कि कोई कहे, अपने हाथ को वश में करना कठिन है। हाथ मेरा है, बड़ा हूं। अंग है, मैं अंगी हूं। हाथ अंश है, मैं अंशी हूं । हाथ एक पार्ट है, मैं होल हूं। कोई भी हिस्सा अपने पूरे से बड़ा नहीं होता, कोई पार्ट होल से बड़ा नहीं होता। मेरी आंख मेरे वश हो! मैं आंख से ज्यादा हूं। आंख मेरे बिना नहीं हो सकती,
लेकिन मैं आंख के बिना हो सकता हूं। जैसे हाथ मेरे बिना नहीं हो सकता। इस हाथ को काट दें, तो हाथ मेरे बिना नहीं हो सकता, मर जाएगा, लेकिन मैं हाथ के बिना हो सकता हूं। मैं हाथ से ज्यादा हूं। मैं सारी इंद्रियों से ज्यादा हूं। मैं सारी इंद्रियों के जोड़ से ज्यादा हूं।
468
कृष्ण कहते हैं, यह तेरी भूल है, अगर तू सोचता हो कि मैं कमजोर हूं और इंद्रियों पर वश न पा सकूंगा, तो तू गलत सोचता है। इंद्रियों पर तेरा वश है ही, लेकिन तूने कभी घोषणा नहीं की, तूने कभी स्मरण नहीं किया, तूने कभी समझा नहीं है। मालिक तू है ही, लेकिन तुझे पता ही नहीं है कि तू मालिक है और अपने हाथ सेतू नौकर बना हुआ है।
दूसरी बात वे यह कहते हैं कि इंद्रियों के पार मन है, मन के पार बुद्धि है, और बुद्धि के पार वह है, जिसे हम परमात्मा कहें। और ध्यान रहे, जो जितना पार होता है, वह जिसके पार होता है, उससे ज्यादा शक्तिशाली होता है। एक उदाहरण से समझें ।
एक वृक्ष है। उसके पत्ते हमें दिखाई पड़ रहे हैं। पत्तों के पार शाखाएं हैं। शाखाएं पत्तों से ज्यादा शक्तिशाली हैं। आप पत्तों को काट दें, नए पत्ते शाखाओं में तत्काल आ जाएंगे। आप शाखा को काटें, तो नई शाखा को आने में बहुत मुश्किल हो जाएगी। शाखा पत्तों से शक्तिशाली है; वह पत्तों के पार है, पत्तों के पूर्व है, पत्तों से पहले है। पत्तों के प्राण शाखा में हैं, शाखा का प्राण पत्तों में नहीं है । शाखा को काटते ही पत्ते सब मर जाएंगे; पत्तों को काटने से शाखा नहीं मरती । पत्ते शाखा के बिना नहीं हो सकते हैं, शाखा पत्तों के बिना हो सकती है।
फिर शाखा से और नीचे चलें, तो पींड है वृक्ष की। पींड | शाखाओं के पार है। पींड शाखाओं के बिना हो सकती है, लेकिन | शाखाएं बिना पींड के नहीं हो सकती हैं। और पींड के नीचे चलें, तो जड़ें हैं। जड़ें पींड के भी पार हैं। पींड को भी काट दें, तो नए अंकुर आ जाएंगे; लेकिन जड़ों को काट दें, तो फिर नए अंकुर नहीं आएंगे। पींड के बिना जड़ें हो सकती हैं, जड़ों के बिना पींड नहीं हो सकती। जो जितना पार है, वह उतना शक्तिशाली है। जो जितना आगे है, वह उतना कमजोर है। जो जितना पीछे है, वह उतना शक्तिशाली है। असल में शक्तिशाली को पीछे रखना पड़ता है, क्योंकि वह सम्हालता है।
इसलिए कृष्ण कहते हैं, इंद्रियों के पीछे मन है । मन शक्तिशाली है, अर्जुन, इंद्रियों से बहुत ज्यादा। इसलिए अगर मन चाहे, तो किसी भी इंद्रिय को तत्काल रोक सकता है। और जब मन सक्रिय