Book Title: Gita Darshan Part 01
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 503
________________ ओशो - एक परिचय बुद्धत्व की प्रवाहमान धारा में ओशो एक नया प्रारंभ हैं, लगे। विद्यार्थियों के बीच वे 'आचार्य रजनीश' के नाम से वे अतीत की किसी भी धार्मिक परंपरा या श्रृंखला की कड़ी नहीं अतिशय लोकप्रिय थे। हैं। ओशो से एक नये युग का शुभारंभ होता है और उनके | | विश्वविद्यालय के अपने नौ सालों के अध्यापन-काल के साथ ही समय दो सुस्पष्ट खंडों में विभाजित होता है: दौरान वे पूरे भारत में भ्रमण भी करते रहे। प्रायः 60-70 हजार ओशो-पूर्व तथा ओशो-पश्चात। की संख्या में श्रोता उनकी सभाओं में उपस्थित होते। वे ओशो के आगमन से एक नये मनुष्य का, एक नये जगत आध्यात्मिक जन-जागरण की एक लहर फैला रहे थे। उनकी का, एक नये युग का सूत्रपात हुआ है, जिसकी आधारशिला वाणी में और उनकी उपस्थिति में वह जादू था, वह सुगंध थी, अतीत के किसी धर्म में नहीं है, किसी दार्शनिक विचार-पद्धति जो किसी पार के लोक से आती है। में नहीं है। ओशो सद्यःस्नात धार्मिकता के प्रथम पुरुष हैं, सन 1966 में ओशो ने विश्वविद्यालय के प्राध्यापक पद सर्वथा अनूठे संबुद्ध रहस्यदर्शी हैं। से त्यागपत्र दे दिया ताकि अस्तित्व ने जिस परम भगवत्ता का . मध्यप्रदेश के कुचवाड़ा गांव में 11 दिसंबर 1931 को खजाना उन पर लुटाया है उसे वे पूरी मानवता को बांट सकें जन्मे ओशो का बचपन का नाम रजनीश चन्द्रमोहन था। और एक नये मनुष्य को जन्म देने की प्रक्रिया में समग्रतः लग उन्होंने जीवन के प्रारंभिक काल में ही एक निर्भीक स्वतंत्र सकें। ओशो का यह नया मनुष्य 'ज़ोरबा दि बुद्धा' एक ऐसा आत्मा का परिचय दिया। खतरों से खेलना उन्हें प्रीतिकर था। मनष्य है जो जोरबा की भांति भौतिक जीवन का परा आनंद 100 फीट ऊंचे पल से कद कर बरसात में उफनती नदी को मनाना जानता है और जो गौतम बद्ध की भांति मौन होकर तैर कर पार करना उनके लिए साधारण खेल था। युवा ओशो ध्यान में उतरने में भी सक्षम है-ऐसा मनुष्य जो भौतिक और ने अपनी अलौकिक बुद्धि तथा दृढ़ता से पंडित-पुरोहितों, | आध्यात्मिक, दोनों तरह से समृद्ध है। ‘ज़ोरबा दि बुद्धा' एक मुल्ला-पादरियों, संत-महात्माओं-जो स्वानुभव के बिना ही | समग्र व अविभाजित मनुष्य है। इस नये मनुष्य के बिना पृथ्वी भीड़ के अगुवा बने बैठे थे-की मूढ़ताओं और पाखंडों का | का कोई भविष्य शेष नहीं है। पर्दाफाश किया। सन 1970 में ओशो बंबई में रहने के लिए आ गये। अब __21 मार्च 1953 को इक्कीस वर्ष की आयु में ओशो पश्चिम से सत्य के खोजी भी, जो अकेली भौतिक समृद्धि से संबोधि (परम जागरण) को उपलब्ध हुए। संबोधि के संबंध में ऊब चुके थे और जीवन के किन्हीं और गहरे रहस्यों को जानने वे कहते हैं: 'अब मैं किसी भी प्रकार की खोज में नहीं हूं। और समझने के लिए उत्सुक थे, उन तक पहुंचने लगे। ओशो अस्तित्व ने अपने समस्त द्वार मेरे लिए खोल दिये हैं।' | ने उन्हें देशना दी कि अगला कदम ध्यान है। ध्यान ही जीवन में उन दिनों वे जबलपुर के एक कालेज में दर्शनशास्त्र के | सार्थकता के फूलों के खिलने में सहयोगी सिद्ध होगा। विद्यार्थी थे। संबोधि घटित होने के पश्चात भी उन्होंने अपनी | इसी वर्ष सितंबर में, मनाली (हिमालय) में आयोजित शिक्षा जारी रखी और सन 1957 में सागर विश्वविद्यालय से | अपने एक शिविर में ओशो ने नव-संन्यास में दीक्षा देना प्रारंभ दर्शनशास्त्र में प्रथम श्रेणी में प्रथम (गोल्डमेडलिस्ट) रह कर किया। इसी समय के आसपास वे आचार्य रजनीश से भगवान एम.ए. की उपाधि प्राप्त की। इसके पश्चात वे जबलपुर श्री रजनीश के रूप में जाने जाने लगे। विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक पद पर कार्य करने सन 1974 में वे अपने बहुत से संन्यासियों के साथ पूना | 473/

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