Book Title: Gita Darshan Part 01
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 471
________________ + परधर्म, स्वधर्म और धर्म +m जरा इसे समझ लेना उचित होगा। भटकता वही है, जो ठीक तो जीवनभर पाएगा कि किसी मुसीबत में पड़ा है; कैसे छुटकारा रास्ते पर होता है, क्योंकि तभी उसे भटकाव का पता चलता है कि हो इस मुसीबत से! जो कवि हो सकता था, वह गणितज्ञ हो जाए, भटक गया। लेकिन जो बिलकुल गलत रास्ते पर होता है, वह कभी | तो कठिनाई खड़ी होने वाली है; बहुत कठिनाई खड़ी हो जाने वाली नहीं भटकता, क्योंकि भटकने के लिए कोई मापदंड ही नहीं होता। है। क्योंकि इन दोनों के जीवन को देखने के ढंग ही भिन्न हैं। इन दूसरे के रास्ते पर आप कभी नहीं भटकेंगे; रास्ता मजबूती से दोनों के सोचने की प्रक्रिया अलग है। इनके पास आंखें एक-सी दिखाई पड़ेगा; कोई चल चुका है। आप लकीर पीटते हुए चले | | दिखाई पड़ती हैं, एक-सी हैं नहीं। जाएं। लेकिन स्वधर्म के रास्ते पर भटकाव का डर है, साहस की ___ मैंने सुना है, एक जेलखाने में दो आदमी एक ही दिन बंद किए जरूरत है। गए। सांझ, पूर्णिमा की रात, चांद निकला है। दोनों सीखचों को इसलिए मैं कहता हूं, धर्म बहुत जोखिम है। और उसी जोखिम पकड़कर खड़े हैं। एक के चेहरे पर इतना आह्लाद है कि जैसे उसे की वजह से, उसी रिस्क की वजह से हम दूसरे का धर्म चुन लेते | स्वर्ग का खजाना मिल गया हो, जेल के सीखचों के भीतर! दूसरे के हैं। बेटा बाप का चुन लेता है, शिष्य गुरु का चुन लेता है, चेहरे पर ऐसा क्रोध है कि अगर उसका बस चले, तो सब आग लगा पीढ़ियां-दर-पीढ़ियां एक-दूसरे के पीछे चलती चली जाती हैं। कोई | दे, जैसे नर्क में खड़ा हो। तो उस दूसरे आदमी ने पास खड़े आदमी इसकी फिक्र नहीं करता कि दूसरे का धर्म मेरा धर्म नहीं हो सकता | से कहा, इतने प्रसन्न दिखाई पड़ रहे हो, पागल तो नहीं हो! यह है। मैं एक स्वभाव लेकर आया हूं, जिसका अपना स्वर है, जिसका जेलखाना है; इतनी प्रसन्नता? और सामने देखते हो, डबरा भरा हुआ अपना संगीत है, जिसकी अपनी सुगंध है, जिसका अपना जीने का | है, गंदगी फैली हुई है; बास आ रही है; मच्छड़-कीड़े घूम रहे हैं। ढंग है। उस ढंग को मुझे विकसित करना होगा। कहां बंद किया हुआ है हमें लाकर! उस दूसरे आदमी ने कहा, तुमने · कृष्ण बहुत जोर देकर अर्जुन से कहते हैं, तू ठीक से पहचान ले, | कहा तो मुझे याद आया कि जेल के भीतर हूं, अन्यथा मैं पूर्णिमा के तेरा स्वधर्म क्या है। और अर्जुन अगर आंख बंद करे और जरा चांद के पास पहुंच गया था। मुझे पता ही नहीं था कि मैं जेल के भीतर ध्यान करे, तो वह कह सकता है कि उसका स्वधर्म क्या है। हम | हूं। और तुम कहते हो तो मुझे दिखाई पड़ता है कि सामने डबरा है, कभी आंख बंद नहीं करते, नहीं तो हम भी कह सकते हैं कि हमारा अन्यथा पूर्णिमा का चांद जब ऊपर उठा हो, तो डबरे सिर्फ पागल स्वधर्म क्या है। हम कभी खयाल नहीं करते कि हमारा स्वधर्म क्या देखते हैं. डबरे को देखने की फर्सत कहां? आंख कहां? है। और इसीलिए कोई चीज हमें तृप्त नहीं करती है। जहां भी जाते | ये दोनों आदमी एक ही साथ खड़े हैं, एक ही जेलखाने में। इन हैं, वहीं अतृप्ति। दोनों के पास एक-सी आंखें हैं, लेकिन एक-सा स्वधर्म नहीं है; आज सारी दुनिया उदास है और लोग कहते हैं, जीवन अर्थहीन । स्वधर्म बिलकुल भिन्न है। अब वह आदमी कहता है, मुझे पता ही है। अर्थहीन नहीं है जीवन, सिर्फ स्वधर्म खो गया है। इसलिए नहीं था कि मैं जेलखाने में हूं। जब पूर्णिमा का चांद निकला हो, तो अर्थहीनता है। दूसरे के काम में अर्थ नहीं मिलता। अब एक आदमी कैसे पता हो सकता है कि जेलखाने में हूं। वह दूसरा आदमी जो गणित कर सकता है, वह कविता कर रहा है! अर्थहीन हो कहेगा, पागल हो गए हो! जब जेलखाने में हो, तो पूर्णिमा का चांद जाएगी कविता। सिर्फ बोझ मालूम पड़ेगा कि इससे तो मर जाना निकल ही कैसे सकता है? ठीक है न! जब जेलखाने में बंद है बेहतर है। यह कहां का नारकीय काम मिल गया। अब जो गणित आदमी, तो पूर्णिमा का चांद निकलता है कहीं जेलखानों में! कर सकता है, वह कविता कर रहा है। गणित और बात है, | | जेलखानों में कभी पूर्णिमा नहीं होती, वहां अमावस ही रहती है। बिलकुल और। उसका काव्य से कोई लेना-देना नहीं है। काव्य में | | पर ये दो आदमी, इनके देखने के दो ढंग। और दो ढंग ही होते, तो दो और दो पांच भी हो सकते हैं, तीन भी हो सकते हैं। गणित में | भी ठीक था। जितने आदमी उतने ढंग हैं। दो और दो चार ही होते हैं। वहां इतनी सुविधा नहीं है, इतनी लोच | स्वधर्म का मतलब है, पृथ्वी पर जितनी आत्माएं हैं, उतने धर्म नहीं है। गणित बहुत सख्त है। काव्य बहुत लोचपूर्ण, फ्लेक्सिबल | | हैं, उतने स्वभाव हैं। दो कंकड़ भी एक जैसे खोजना मुश्किल हैं, है। काव्य तो एक बहाव है। गणित एक बहाव नहीं है। | दो आदमी तो खोजना बहुत ही मुश्किल है। सारी पृथ्वी को छान अब जो गणितज्ञ हो सकता था, वह कवि होकर अगर बैठ जाए, डालें, तो दो कंकड़ भी नहीं मिल सकते, जो बिलकुल एक जैसे 441

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