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im गीता दर्शन भाग-1 AM
लगाकर भेज दिया है कि बस हो जाओ किसी के जैसे। जैसे कार्बन | | अज्ञात में छलांग लगाने, जहां कोई नहीं गया है। कापी होने का ही आपका अधिकार है।
इसलिए परधर्म आकर्षक मालूम पड़ता है। क्योंकि परधर्म में नहीं. परमात्मा चकता नहीं है। कष्ण के इस सत्र में बडे कीमती सिक्योरिटी मालम पडती है। नक्शा मिलता है न परधर्म में। हमें अर्थ हैं, भयावह है परधर्म। अगर भयभीत ही होना है, तो मौत से | | पता है, बुद्ध ने क्या-क्या किया है। तो ठीक वैसे ही पालथी मारकर भयभीत मत होना। कृष्ण नहीं कहेंगे कि मौत से डरो। जो आदमी | | हम भी कुछ करें, तो नक्शा हमारे पास होता है। हमें पता है, कृष्ण कहता है, मौत से मत डरो, वह आदमी कहता है, परधर्म से डरो! ने क्या किया। तो ठीक है, हम भी एक बांसुरी खरीद लाएं और मौत से भी ज्यादा खतरनाक है परधर्म! क्यों? क्योंकि परधर्म | | किसी झाड़ के नीचे खड़े होकर बजाएं। नक्शे हैं पास में। परधर्म स्युसाइडल है। जिस आदमी ने दूसरे के धर्म को स्वीकार कर लिया, | में नक्शा है, स्वधर्म अनचार्टर्ड है। कोई नक्शा नहीं, कोई उसने आत्महत्या कर ली। उसने अपनी आत्मा को तो मार ही डाला, | कुतुबनुमा नहीं, कोई रास्ता बताने वाला नहीं। क्योंकि आप ही अब वह दूसरे की आत्मा की कापी ही बनने की कोशिश में रहेगा। पहली दफा उस यात्रा पर जा रहे हैं, जो आपका स्वधर्म है। इसलिए
और कोई कितनी ही कोशिश करे, आवरण ही बदल सकता है। | आदमी डरकर दूसरे के रास्ते पर चला जाता है। बंधे-बंधाए रास्ते, भीतर की आत्मा तो जो है अपनी, वही है। वह कभी दूसरे की नहीं | | तैयार पगडंडियां, राजपथ लुभाते हैं कि बंधा हुआ रास्ता है, लोग हो सकती। भयावह है मृत्यु से भी ज्यादा परधर्म, क्योंकि आत्मघात | उस पर जा चुके हैं पहले भी, मैं भी इस पर चला जाऊं। है। आत्मघात जिसे हम कहते हैं, उससे भी ज्यादा भयावह है। __ लेकिन ध्यान रहे, दूसरे के रास्ते से कोई अपनी मंजिल पर नहीं क्योंकि जिसे हम आत्मघात कहते हैं, उसमें सिर्फ शरीर मरता है, | | पहुंच सकता है। जब रास्ता दूसरे का, तो मंजिल भी दूसरे की। और
और जिसे कृष्ण भयावह कह रहे हैं, उसमें आत्मा को ही हम | | दूसरे की मंजिल पर पहुंच जाने से बेहतर, अपनी मंजिल को खोजने दबाकर मार डालते हैं, आत्मा को ही घोंट डालते हैं। | में भटक जाना है। क्योंकि भटकना भी सीख बन जाती है। और
दूसरे के धर्म से सावधान होने की जरूरत है और स्वधर्म पर | भूल भी सुधारी जा सकती है। और भूल से, आदमी भूल करने से दृष्टि लगाने की जरूरत है। इस बात की खोज करने की जरूरत है | | बचता है। भूल ज्ञान है। अपनी खोज में भटकना और गिरना भी कि मैं क्या होने को हूं? मैं क्या हो सकता हूं? मेरे भीतर छिपा बीज | उचित। दूसरे की खोज में अगर बिलकुल राजपथ है, तो भी व्यर्थ, क्या मांगता है? और साहसपूर्वक उस यात्रा पर निकलने की क्योंकि वह आपके मंदिर तक नहीं पहुंचता। जरूरत है।
स्वधर्म दुस्साहस है। अज्ञात दुस्साहस है। अनजान, अपरिचित, इसलिए धर्म सबसे बड़ा दुस्साहसिक काम है, सबसे बड़ा | | यहां रास्ता बना-बनाया नहीं है। यहां तो चलना और रास्ता बनाना, एडवेंचर है। न तो चांद पर जाना इतना दुस्साहसिक है, न एवरेस्ट एक ही बात के दो ढंग हैं कहने के। यहां तो चल पर चढ़ना इतना दुस्साहसिक है, न प्रशांत महासागर की गहराइयों | है। एक बीहड़ जंगल में आप चलते हैं और रास्ता बनता है। जितना में डूब जाना इतना दुस्साहसिक है, न ज्वालामुखी में उतर जाने में | | चलते हैं, उतना ही बनता है। बेकार है। क्योंकि रास्ता होना चाहिए इतना दुस्साहस है, जितना दुस्साहस स्वधर्म की यात्रा पर निकलने | | चलने के पहले, तो उसका कोई सहारा मिलता है। आप चलते हैं में है। क्यों? क्योंकि भला चाहे एवरेस्ट पर कोई न पहुंचा हो, | | जंगल में, लताएं टूट जाती हैं, वृक्षों को हटा लेते हैं, जगह साफ लेकिन बहुत लोगों ने पहुंचने की कोशिश की है। भला कोई ऊपर | | कर लेते हैं, लेकिन उससे कोई हल नहीं होता। आगे फिर रास्ता तक तेनसिंह और हिलेरी के पहले न पहुंचा हो, लेकिन आदमी के | बनाना पड़ता है। चरण-चिह्न काफी दूर तक, एप्रॉक्सिमेटली करीब-करीब पहुंच | स्वधर्म में चलना ही मार्ग का निर्माण है। इसलिए भटकन तो गए हैं। यात्री जा चुके उस रास्ते पर। चाहे प्रशांत महासागर में कोई | निश्चित है। लेकिन भटकन से जो भयभीत है, वह कहीं परधर्म की इतना गहरे न गया हो, लेकिन लोग जा चुके हैं। लोग निर्णायक सुरक्षापूर्ण, सिक्योर्ड यात्रा पर निकल गया, तो कृष्ण कहते हैं, वह रास्ता छोड़ गए हैं। लेकिन स्वधर्म की यात्रा पर, आपके पहले और भी भयपूर्ण है। क्योंकि यहां तुम भटक सकते थे, लेकिन वहां
धर्म की यात्रा पर कोई भी नहीं गया, बिलकुल अननोन तुम पहुंच ही नहीं सकते हो। भटकने वाला पहुंच सकता है। है; एक इंच कोई नहीं गया। आप ही जाएंगे पहली बार एकदम भटकता वही है, जो ठीक रास्ते पर होता है।
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