Book Title: Gita Darshan Part 01
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 430
________________ - गीता दर्शन भाग-1 4K कृष्ण व वृक्ष में भी घाव छूट जाता और कच्चे पत्ते में भी घाव छूट जाता। है कि भूलकर संन्यास मत ले लेना। क्योंकि संन्यास की जो धारणा और घाव खतरनाक है। निर्मित हुई हमारे देश में, वह धारणा कच्चे पत्तों के टूटे होने की ___ इसलिए ध्यान रखें, पका पत्ता जब वृक्ष से गिरता है, तो सड़ता | | धारणा थी। तो डर लगता है कि अगर पति संन्यासी हुआ, तो क्या नहीं। कच्चा पत्ता जब वृक्ष से गिरता है, तो सड़ता है। पका पत्ता होगा? सब बरबाद हो जाएगा। पत्नी संन्यासिनी हो गई, तो क्या सड़ेगा क्या! सड़ने के बाहर हो गया पककर। कच्चा पत्ता जब भी होगा? सब बरबाद हो जाएगा। टूटेगा तो सड़ेगा। अभी कच्चा ही था; अभी पका कहां था? अभी बुद्ध और महावीर के अनजाने ही कच्चे पत्ते टूटे। और कच्चे तो सड़ेगा। और ध्यान रखें, पकना एक बात है, और सड़ना पत्ते टूटे, तो पीछे घाव छूट गए। वे घाव अब तक भी मनस, हमारे बिलकुल दूसरी बात है। समाज के मानस में भर नहीं गए हैं। अभी भी दूसरे का बेटा कच्चा आदमी वैसा ही होता है, जैसे कच्ची लकड़ी को हम ईंधन संन्यासी हो, तो हम फूल चढ़ा आते हैं उसके चरणों में खुद का बना लें। तो आग तो कम जलती है, धुआं ही ज्यादा निकलता है। | बेटा संन्यासी होने लगे, तो प्राण कंपते हैं। खुद का बेटा चोर हो पकी लकड़ी भी ईंधन बनती है, लेकिन तब धुआं नहीं निकलता, | जाए, तो भी चलेगा; संन्यासी हो जाए, तो नहीं चलता है। डाकू हो आग जलती है। जो व्यक्ति जानकर जीवन से छूट जाता है सहज, जाए, तो भी चलेगा। कम से कम घर में तो रहेगा। दो साल सजा वह पकी लकड़ी की तरह ईंधन बन जाता है, उसमें धुआं नहीं होता। काटेगा, वापस आ जाएगा। संन्यासी हो जाए, तो गया; फिर कभी कच्चे व्यक्ति अगर छूट जाते हैं पक्के लोगों को देखकर, तो आग | वापस नहीं लौटता। इसलिए इस देश में संन्यास को हमने इतना पैदा नहीं होती. सिर्फ धुआं ही धुआं पैदा होता है। और लोगों की आदर भी दिया, उतने ही हम भयभीत भी हैं भीतर; डरे हुए भी हैं; आंखें भर जलती हैं, भोजन नहीं पकता है। घबड़ाए हुए भी हैं। यह घबड़ाहट उन ज्ञानियों के कारण पैदा हो नी को बहुत ही...तलवार की धार पर जाती है. जो अज्ञानियों का बिना ध्यान लिए वर्तन करते हैं। . चलना होता है। उसे ध्यान रखना होता है अपने ज्ञान का भी, चारों - तो कृष्ण कहते हैं कि तू ऐसा बर्त कि तेरे कारण किसी अज्ञानी तरफ घिरे हुए अज्ञानियों का भी। इसलिए ऐसा उसे बर्तना चाहिए के सहज जीवन की श्रद्धा में कोई बाधा न पड़ जाए। हां, ऐसी कि वह किसी अज्ञानी के कर्म की श्रद्धा को चोट न बन जाए; वह | | कोशिश जरूर कर कि तेरी सुगंध, तेरे अनासक्ति की सुवास, ' उसके कर्म के भाव को आघात न बन जाए; वह उसके जीवन के | उनके जीवन में भी धीरे-धीरे अनासक्ति की सुवास बने, लिए आशीर्वाद की जगह अभिशाप न बन जाए। अनासक्ति की सुगंध बने और वे भी जीवन में रहते हुए अनासक्ति बन गए बहुत दफा ज्ञानी अभिशाप! और अगर ज्ञान के प्रति | | को उपलब्ध हो सकें। तो शुभ है, तो मंगल है, अन्यथा अनेक बार इतना भय आ गया है, तो उसका कारण यही है। बुद्ध को देखकर | | मंगल के नाम पर अमंगल हो जाता है। लाखों लोग घर छोड़कर चले गए। चंगेज खां ने भी लाखों घरों को आखिरी श्लोक। बरबाद किया। लेकिन चंगेज खां को इतिहास दोषी ठहराएगा, बुद्ध को नहीं ठहराएगा। हजारों स्त्रियां रोती, तड़पती-पीटती रह गईं। हजारों बच्चे अनाथ हो गए पिता के रहते। हजारों स्त्रियां पतियों के प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। रहते विधवा हो गईं। हजारों घरों के दीए बुझ गए। कृष्ण यही कह अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते । । २७ ।। रहे हैं...। और इसके दुष्परिणाम घातक हुए और लंबे हुए। इसका (वास्तव में) संपूर्ण कर्म प्रकृति के गुणों द्वारा किए हुए हैं, सबसे घातक परिणाम यह हुआ कि संन्यास में एक तरह का भय (तो भी) अहंकार से मोहित हुए अंतःकरण वाला पुरुष, समाहित हो गया। मैं कर्ता हूं, ऐसे मान लेता है। अब अगर मेरे पास कोई आता है और मेरा संन्यास बिलकुल और है; अभिशाप की तरह नहीं है, वरदान की तरह है तो वह कहता है, मेरी पत्नी खिलाफ है। क्योंकि पत्नी संन्यासी के खिलाफ 1 मस्त कर्म प्रकृति के गुणों के द्वारा किए हुए हैं। लेकिन होगी ही। पत्नी अगर आती है, तो वह कहती है, मेरा पति खिलाफ | 1 अज्ञान से, अहंकार से भरा हुआ पुरुष, मैं कर्ता हूं, 4001

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