Book Title: Gita Darshan Part 01
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

View full book text
Previous | Next

Page 457
________________ m+ श्रद्धा है द्वार - गीता की बात मानकर चलता है, वही पहुंच जाता है। कुरान की भी पानी वोल्गा से कह रहा है कि मुझे पीयोगे, तो प्यास से मुक्त हो माने तो पहुंच जाएगा, बाइबिल की भी माने तो पहुंच जाएगा। | | जाओगे। गंगा और वोल्गा का फर्क पानी का फर्क नहीं है। गंगा असली सवाल कुरान और बाइबिल का नहीं है, असली सवाल और वोल्गा का फर्क सिर्फ तटों का फर्क है, पानी का फर्क नहीं है। श्रद्धापूर्ण हृदय का है। इसमें एम्फेसिस में फर्क करना चाहता हूं। कृष्ण के तट अलग हैं, बुद्ध के तट अलग हैं। लेकिन जो जल असली सवाल श्रद्धापूर्ण हृदय का है। अगर उतनी ही श्रद्धापूर्ण की धार उनसे बहती है, वह एक ही परमात्मा की है। इसे स्मरण हृदय से कोई जीसस का हाथ पकड ले. तो वहां से भी पहुंच जाता | रखेंगे, तो यह बात ठीक से खयाल में आ सकती है। है। कोई मोहम्मद का हाथ पकड़ ले, तो वहां से भी पहुंच जाता है। असली सवाल यह है कि श्रद्धापूर्ण हृदय, अनासक्त कर्म करता हुआ कर्म के बाहर पहुंच जाता है। और मेरी बात, कृष्ण की बात | प्रश्नः भगवान श्री, आखिरी का श्लोक है, उसका नहीं है। मेरी बात, परमात्मा की बात है। , अर्थ है, सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात कृष्ण सिर्फ झरोखा हैं, जिससे परमात्मा झांका है अर्जुन के | | अपने स्वभाव से परवश हुए कर्म करते हैं। ज्ञानवान सामने। कभी वह मोहम्मद से झांकता है, कभी वह मूसा से झांकता भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है, फिर है। हजार-हजार झरोखों से वह झांकता है। और जब भी झांकता | इसमें किसी का हठ क्या करेगा! इसका अर्थ भी है, तब उसकी आवाज इतनी ही आथेंटिक होती है। वह कहता है, | स्पष्ट करें। मेरी बात मानोगे, तो पहुंच जाओगे। और इससे बड़ा विवाद दुनिया में पैदा होता है। क्योंकि कोई कहते हैं, यह मोहम्मद ने कहा; कोई कहते हैं, यह कृष्ण ने कहा; कोई कहते हैं, क्राइस्ट ने कहा। फिर कष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं समर्पण के लिए, सरेंडर इन तीनों में झगड़ा होता है कि किसकी मानें! वे कहते हैं कि हमारे y० के लिए। वही मूल सूत्र है, जहां से व्यक्ति अपने को गुरु ने कहा है, मेरी। जीसस ने कहा है, मैं हूं मार्ग, मैं हूं द्वार, जो C कोडता और परमात्मा को पाता है। तो वे उस समर्पण मुझ पर चलेगा वह पहुंच जाएगा। आई एम दि वे। आई एम दि के लिए कह रहे हैं कि प्रत्येक व्यक्ति प्रकृति के गुणों के परवश ट्रथ, मैं हूं सत्य। मैं हूं द्वार। आओ, मुझ पर चलोगे, तो पहुंच | | कर्म करता है, ज्ञानी भी, अज्ञानी भी। और किसी का हठ इसमें कुछ जाओगे। अब वह जीसस का मानने वाला जरूर कहेगा ईसाई कि भी नहीं कर सकता है। जैसे, अज्ञानी भी मरता है, ज्ञानी भी मरता इतना साफ कहा है, और तुम कहां भटक रहे हो? राम को मानोगे, है और किसी का हठ इसमें कुछ भी नहीं कर सकता है। क्योंकि कृष्ण को मानोगे, बुद्ध को मानोगे, भटक जाओगे, नर्क में पड़ोगे। शरीर का गुणधर्म है कि जो पैदा हुआ, वह मरेगा। असल में जिस लेकिन बड़ी भूल हो गई है। पूरी मनुष्यता से भूल हो गई है। यह दिन पैदा हुआ, उसी दिन मरना शुरू हो गया है। जिसका एक छोर जो भीतर से कह रहा है, आई एम दि वे, यह वही है, जो कृष्ण से है, उसका दूसरा छोर भी है। इधर जन्म एक छोर है, मृत्यु दूसरा कह रहा है, अर्जुन, मेरी बात मान, तो कर्म से मुक्त हो जाएगा। छोर है। ज्ञानी भी मरता है, अज्ञानी भी मरता है। और अगर कोई यह एक ही जीवन-धारा का अनेक-अनेक झरोखों से झांकना है। हठ करे कि मैं न मरूंगा, तो वह पागल है। हठ से कुछ भी न होगा। समझें कि गंगा के पास गए और गंगा ने कहा, मेरा लेकिन एक सवाल उठ सकता है कि अगर ज्ञानी भी मरता है, पानी पीयोंगे, तो प्यास से मुक्त हो जाओगे। फिर वोल्गा के किनारे | अज्ञानी भी मरता है; और अगर ज्ञानी भी परवश होकर जीता है और गए और वोल्गा ने कहा, मेरा पानी पीयोगे, तो प्यास से मुक्त हो | | अज्ञानी भी परवश होकर जीता है, तो फिर दोनों में फर्क क्या है? जाओगे। तुमने कहा कि यह तो बड़ा कंट्राडिक्टरी मामला है। गंगा फर्क है, और बड़ा फर्क है। अज्ञानी हठपूर्वक प्रकृति के गुणों से भी यही कहती है, वोल्गा भी यही कहती है; हम किसकी मानें? | लड़ता हुआ जीता है। हारता है, पर लड़ता जरूर है। ज्ञानी जानकर हम तो गंगा को मानने वाले हैं, हम वोल्गा का पानी न पीएंगे। हम कि प्रकृति के गुण काम करते हैं, लड़ता नहीं, इसलिए हारता भी तो गंगा का ही पानी पी नहीं और साक्षीभाव से जीता है। मत्य दोनों की होती है. ज्ञानी की ने कहा था कि मुझे पीयोगे, तो प्यास से मुक्त हो जाओगे, वही | भी, अज्ञानी की भी। अज्ञानी कोशिश करते हुए मरता है कि मैं न समयों गंगा से जिस पानी

Loading...

Page Navigation
1 ... 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512