Book Title: Gita Darshan Part 01
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna
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एक आखिरी सूत्र और ले लें।
गीता दर्शन भाग-1
इन्द्रियस्येन्द्रियस्थार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ । तयोर्न वशमागच्छेत्तौ हास्य परिपन्थिनौ ।। ३४ ।। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि इंद्रिय इंद्रिय के अर्थ में अर्थात सभी इंद्रियों के भोगों में स्थित जो राग और द्वेष हैं, उन दोनों के वश में न होवे। क्योंकि वे दोनों ही कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महाशत्रु हैं।
वन के सारे अनुभव द्वंद्व के अनुभव हैं। जीवन का सारा विस्तार ही द्वंद्व और द्वैत, डुएलिटी का पोलर, ध्रुवीय विस्तार है। यहां कुछ भी नहीं है ऐसा, जिसके विपरीत न हो। यहां कुछ भी नहीं है ऐसा, जिसका प्रतिकूल न हो। यहां कुछ भी नहीं है ऐसा, जिससे उलटा न हो। जगत का सारा अस्तित्व पोलर है, ध्रुवीय है। ठीक वैसे ही जैसे एक आर्किटेक्ट, एक वस्तु शिल्पकार, एक भवन निर्माता द्वार बनाता है। तो कभी आपने देखा, द्वार पर वह कोई सहारे नहीं लेता। सिर्फ उलटी ईंटों को गोलाई में जोड़ देता है। सिर्फ ईंटों को उलटा और गोलाई में जोड़ देता है और आर्च बन जाता है। वह सारा भवन, भवन का सारा वजन उस गोलाई पर टिक जाता है। कभी आपने खयाल किया कि बात क्या है? उन उलटी ईंटों का जो तनाव है, टेंशन है; वे उलटी ईंटें एक-दूसरे को दबाती हैं, पूरे भवन के वजन को उठा
ती हैं। अगर एक-सी ईंटें लगा दी जाएं, एक कोने से दूसरे कोने तक एक ही रुख वाली ईंटें लगा दी जाएं, तो भवन तत्काल गिर जाएगा, बन ही नहीं सकता ।
जीवन का सारा भवन उलटी ईंटों पर टिका हुआ है। यहां सुख की भी ईंट है और दुख की भी ईंट है। यहां राग की भी ईंट है और विराग की भी ईंट है। यहां प्रेम की भी ईंट है और घृणा की भी ईंट है। और ध्यान रहे, इस जगत में अकेली प्रेम की ईंट पर भवन निर्मित नहीं हो सकता, घृणा की ईंट भी उतनी ही जरूरी है। यहां मित्र भी उतना ही जरूरी है, शत्रु भी उतना ही जरूरी है। यहां सब उलटी चीजें जरूरी हैं। क्योंकि उलटे के तनाव पर ही जीवन खड़ा होता है।
यह बिजली जल रही है, उसमें निगेटिव और पाजिटिव के पोल
जरूरी हैं। अगर वह एक ही पोल हो, तो अभी अंधकार हो जाए। | ये हम इतने पुरुष - स्त्रियां यहां बैठे हुए हैं, स्त्री और पुरुष के अस्तित्व के लिए स्त्री और पुरुष का विरोध और जरूरी है। वह जिस दिन समाप्त हो जाए, उस दिन सब समाप्त हो जाए।
द्वैर्भर है। कृष्ण कहते हैं अर्जुन से, इंद्रियों के सब अनुभव द्वंद्वग्रस्त हैं। वहां सुख आता है, तो पीछे दुख आता है। वहां सुख आता है, तो दुख को निमंत्रण देकर ही आता है। वहां दुख आता है, तो जल्दी मत करना, धैर्य मत खोना, पीछे सुख आता ही होगा। जैसे लहर के पीछे ढलान आता है, और जैसे पहाड़ के पीछे खाई आती है, ऐसे ही प्रत्येक अनुभव के पीछे विपरीत अनुभव आता है। आ ही रहा है। जब लहर आ रही है सागर की, तो समझें कि पीछे लहर का गड्डा भी आ रहा है! क्योंकि बिना उस | गड्ढे के लहर नहीं हो सकती। और जब पहाड़ देखें, उत्तुंग शिखर आकाश को छूता, जान लेना कि पास ही खाई भी है, खड्ड भी पाताल को छूती । दोनों के बिना दोनों नहीं हो सकते। जब वृक्ष आकाश में उठता है छूने को तारों को, तो उसकी जड़ें नीचे जमीन में उतर जाती हैं पाताल को छूने को । अगर जड़ें नीचे न जाएं, तो वृक्ष ऊपर नहीं जा सकता ।
सारा जीवन विरोध पर खड़ा है। इसलिए एक बहुत अदभुत घटना मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि घटती है। हम उलटा काम करते हैं। हम सदा यह कोशिश करते हैं कि दो में से एक बच जाए, जो | हो नहीं सकता। हम इस कोशिश में लगते हैं कि मकान ऐसा बनाएं कि इकतरफा, एक रुख वाली ईंटों पर भवन खड़ा हो जाए। दबेंगे उसी के नीचे और मरेंगे। ऐसा भवन खड़ा नहीं हो सकता।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जो आदमी घृणा नहीं कर सकता, वह आदमी प्रेम भी नहीं कर सकता। हालांकि सब हमें समझाते हैं कि प्रेम करो, घृणा मत करो। लेकिन जो आदमी घृणा नहीं कर सकता, वह प्रेम भी नहीं कर सकता। सब हमें समझाते हैं कि किसी को शत्रु मत मानो, सबको मित्र मानो। लेकिन जो आदमी शत्रु नहीं बना सकता, वह आदमी मित्र भी नहीं बना सकता। है जीवन का ऐसा ही कठोर सत्य । जो आदमी क्रोध नहीं कर सकता, वह क्षमा भी नहीं कर सकता। हालांकि हम कहते हैं, क्षमा करो, क्रोध मत करो। | लेकिन क्रोध न करोगे, तो क्षमा क्या खाक ? किसको ? और कैसे ? और किस प्रकार ?
जीवन वैपरीत्य पर निर्भर है। यह हमें खयाल में न आए, तो हम एक को बचाने की कोशिश में लग जाते हैं। अज्ञानी एक को बचाने
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