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गीता दर्शन भाग-1-m
भी उतार आया। खिड़की पर आया। मैंने उससे पहले ही कहा कि और श्रद्धा की अपनी आंख है। लेकिन वह आंख तर्क जैसी नहीं तू शुरू ही मत कर कि तू मुसीबत बता। उसने कहा, आप आदमी है, वह आंख प्रेम जैसी है। वह आंख चीर-फाड़ करने वाली नहीं कैसे हो? मैं वही आदमी हूं, आपको समझ नहीं आ रहा है! मैंने है, वह आंख छेद देने वाली नहीं है। आंखों में भी फर्क होता है। कहा, मैं तो यह समझ रहा हूं कि तुम नहीं समझ रहे हो कि मैं वही जब कभी कोई आपको प्रेम से देखता है. तो आंख और होती है। आदमी हूं। मैं तो इस खयाल में हूं। वह मेरे तीन रुपए वापस लौटाने वह आपको चीरती-फाड़ती नहीं, सर्जरी नहीं करती है वह आंख। लगा। उसने कहा कि रुपए रख लो आप। रुपए मैं नहीं लूंगा। रुपए आपके भीतर कहीं घाव हों, तो उनको जोड़ देती है और मलहम तुम ले जाओ। रुपए तुमने कमाए हैं, तुमने मेहनत पूरी की है। वह | कर जाती है। कभी प्रेम की आंख फाड़ती नहीं, काटती नहीं, रुपए रखकर छोड़ गया दरवाजे पर। उसने कहा, रुपए मैं नहीं | विश्लेषण नहीं करती। प्रेम की आंख आपको जोड़ जाती है, फांकों लूंगा। मैंने कहा, बात क्या है? रुपए क्यों नहीं लेते? उसने कहा को इकट्ठा कर जाती है। आपके भीतर घाव हों, तो पूर जाती है। प्रेम कि जिस आदमी ने मुझ पर इतना भरोसा किया, उसे मैं इस तरह की आंख आपको इंटिग्रेट कर जाती है। लेकिन घृणा की आंख? धोखा नहीं दे सकता हूं।
घृणा की आंख आपको टुकड़े-टुकड़े कर जाती है, छार-छार काट एक आदमी धोखा दे जाए, सारी दुनिया ने धोखा दे दिया हमें। देती है। अब हम सबसे सम्हले हुए बैठे हैं। हालांकि बचाने को पास में कुछ __ हमारे पास एक शब्द है, लुच्चा। लुच्चा हम कहते हैं बुरे आदमी भी नहीं है। सम्हले हुए बैठे हैं!
को। आपने कभी सोचा कि लुच्चा का मतलब क्या होता है? ___ अविवेक अश्रद्धा पर ले जाता है। धीरे-धीरे सब तरफ अश्रद्धा लुच्चा संस्कृत के लोचन शब्द से बना है, आंख से। जिसकी आंख हो जाती है। विवेक श्रद्धा पर ले जाता है। और धीरे-धीरे सब तरफ चीर-फाड़ कर देती है किसी के भीतर जाकर, वह लुच्चा। लुच्चा श्रद्धा हो जाती है। अविवेक वहां पहुंचा देता है, जहां सिवाय धोखे का मतलब होता है, इस तरह देखने वाला आदमी कि उसकी आंख के और कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। और विवेक वहां पहुंचा देता | भीतर छुरी की तरह प्रवेश कर जाती है। उसकी आंख छुरी की तरह है, जहां सिवाय भरोसे के और कुछ दिखाई नहीं पड़ता है। काम करती है। तो लुच्चे को पहचानने का और कोई रास्ता नहीं है, तो मैं समझता हूं कि विवेक का मूल्य है, बट एज ए मीन्स, एक सिवाय आंख के, आंख से। हम क्रिटिक को आलोचक कहते हैं।
तरह। श्रद्धा तक पहुंचा दे, यही उसका मूल्य है। लेकिन वह भी आंख से बनता है। आलोचक, वह भी लोचन से ही बनता विवेक श्रद्धा से बड़ा शब्द नहीं है। श्रद्धा बड़ी गहरी अनुभूति है। | | है। आलोचक उसे कहते हैं, जो बड़ी खोज-बीन करके देखता है __इस जगत में इससे बड़ा कोई आनंद नहीं है कि मुझे समग्र भरोसा | |कि कहां क्या है।
आ जाए कि सब परमात्मा है। इस जगत में इससे बड़ी कोई । | आंखें बहुत तरह की हैं। तर्क की भी अपनी आंख है, उसी से निश्चितता नहीं है कि मुझे स्मरण आ जाए कि सब तरफ मैं ही हूं। विज्ञान का जन्म होता है। श्रद्धा की अपनी आंख है, उसी से धर्म इस जगत में इससे बड़ी कोई अनुभूति नहीं है कि सब हाथ मेरे, सब का जन्म होता है। श्रद्धा तर्क की नजरों में अंधी हो सकती है। श्रद्धा
आंखें मेरी, सब पैर मेरे। ऐसी प्रतीति का नाम श्रद्धा है। जिस दिन की नजरों में तर्क बिलकुल विक्षिप्त है; अंधा ही नहीं, पागल भी। कोई पराया दिखाई ही नहीं पड़ता है कहीं, उसी दिन परमात्मा दिखाई | | लेकिन वह बड़े अलग कोणों पर खड़े होकर जीवन को देखना है। पड़ता है। उसी को हम समर्पण कह सकते हैं।
हां, जिसने तर्क से ही दुनिया को देखा, वह कहेगा, श्रद्धा अंधी कष्ण समर्पण की ही बात समझा रहे हैं। विवेक समर्पण तक ले होती है। लेकिन जिसने श्रद्धा के और ऊंचे पर्वत शिखर से देखा, जाए, तो काफी है। लेकिन विवेक स्वयं समर्पण नहीं बनता। वह कहेगा, तर्क विक्षिप्त है। विवेक सिर्फ बता सकता है कि तुम असमर्थ हो अपने में। बस, और ध्यान रहे, श्रद्धा तक कोई भी नहीं पहंचता, जो तर्क से न इतना निगेटिव काम कर सकता है कि वह कह दे कि तम न पा गजरा हो। और जो श्रद्धा पर पहुंच जाए. वह कभी तर्क पर नहीं सकोगे सत्य को। बस इतना। इतना भी पता चल जाए, तो विवेक | पहुंचता। इसलिए श्रद्धा वाले को तर्क और श्रद्धा दोनों का अनुभव ने काम पूरा कर दिया। अब आप छलांग लगा सकते हैं, वहां, जहां होता है, तर्क वाले को सिर्फ तर्क का अनुभव होता है। और जिसको परम श्रद्धा है।
| एक का अनुभव हो, उसकी बात बहुत भरोसे की नहीं होती।
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