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+ श्रद्धा है द्वार 4
कोशिश करता है। ज्ञानी क्या करेगा? या तो ज्ञानी दोनों को छोड़ दे – दोनों को छोड़ दे, तो तत्क्षण जीवन के बाहर हो जाएगा, जीवन के भीतर नहीं रह सकता। या दोनों को एक साथ स्वीकार कर ले।
कृष्ण दूसरी सलाह दे रहे हैं। वे कह रहे हैं, तू दोनों को एक साथ स्वीकार कर ले। यहां सुख भी है, यहां दुख भी है। जन्म भी है, मृत्यु भी है। इंद्रियां अच्छा भी लाती हैं, बुरा भी लाती हैं। इंद्रियां प्रीतिकर को भी जन्माती हैं, अप्रीतिकर को भी जन्माती हैं । इंद्रियां सुख का भी आधार बनतीं और दुख का भी आधार बनतीं। ज्ञानी इन दोनों के जोड़ को, अनिवार्य जोड़ को जानकर दोनों में रहते हुए भी दोनों के बाहर हो जाता है, साक्षी हो जाता है। समझता है कि ठीक है; सुख आया तो ठीक है; दुख आया तो ठीक है। क्योंकि वह जानता है कि वे दोनों ही आ सकते हैं। इसलिए वह इस भूल में नहीं पड़ता कि एक को बचा लूं और दूसरे को छोड़ दूं। वह इस उपद्रव में नहीं पड़ता है। अज्ञानी उसी उपद्रव में पड़ता है और बेचैन हो जाता है। ज्ञानी चैन में होता है, बेचैन नहीं होता।
इसका यह मतलब नहीं कि ज्ञानी पर दुख नहीं आते। ज्ञानी पर दुख आते हैं, लेकिन ज्ञानी दुखी नहीं होता। इसका यह मतलब नहीं कि ज्ञानी पर सुख नहीं आते। ज्ञानी पर सुख आते हैं, लेकिन ज्ञानी सुखी नहीं होता। किस अर्थ में सुखी नहीं होता? इस अर्थ में सुखी नहीं होता कि जो भी आता है, वह उससे अपना तादात्म्य, अपनी आइडेंटिटी नहीं करता है। सुख आता है, तो वह कहता है, ठीक है; सुख भी आया, वह भी चला जाएगा। दुख आता है, वह कहता है, ठीक है; दुख भी आया, वह भी चला जाएगा। और मैं, जिस पर दुख और सुख आते हैं, दोनों से अलग हूं। ऐसा पृथकत्व, ऐसा भेद - अपने अलग होने के अनुभव को वह कभी भी नहीं छोड़ता और खोता ।
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वह जानता है, सुबह आई, सांझ आई; प्रकाश आया, अंधेरा आया तो न तो वह कहता है कि मैं अंधेरा हो गया और न वह कहता है कि मैं प्रकाश हो गया। न वह कहता है कि मैं दुख गया, न वह कहता है कि मैं सुख हो गया। वह कहता है, मुझ पर दुख आया, मुझ पर सुख आया, मुझ पर आया, मैं नहीं हो गया हूं। मैं अलग खड़ा हूं। मैं देख रहा हूं, यह सुख आ रहा है। सागर के तट पर बैठे, यह आई लहर, डुबा गई और यह गई लहर। आप लहर हो जाएं, तो मुश्किल में पड़ जाएंगे। आप लहर नहीं होते।
लेकिन जिंदगी के सागर में लहरें आती हैं और आप लहर ही हो जाते हैं। आप कहते हैं, मैं दुखी हो गया। इतना ही कहिए कि दुख
की लहर आ गई। भीग गए हैं बिलकुल, चारों तरफ दुख की लहर ने घेर लिया है। डूब गए हैं बिलकुल । लेकिन हैं तो अलग ही । यह | रहा दुख, यह रहा मैं सुख आए, एकदम सुखी हो जाते हैं। दीवाने हो जाते हैं। पैर जमीन पर नहीं पड़ते। आंखें यहां-वहां देखती नहीं, आकाश में अटक जाती हैं। हृदय ऐसे धड़कने लगता है कि पता नहीं कब बंद हो जाए। सुख हो जाते हैं।
न, सुख की लहर आई है, ठीक है, आ जाने दें, डुबाने दें, जाने दें। तब समझें कि सागर है जीवन का। आता है सुख, आता है दुख; मित्र आते हैं, शत्रु आते हैं; सम्मान-अपमान, गाली आती, प्रशंसा आती। कभी कोई फूलमालाएं डाल जाता, कभी कोई पत्थर फेंक जाता। जीवन में दोनों आते रहते हैं। ज्ञानी दोनों को देखकर अपने को तीसरा जानता है।
ऐसा अनासक्त हुआ व्यक्ति, कृष्ण कहते हैं, जीवन के समस्त | बंधन से, जीवन के सारे कारागृह से मुक्त हो जाता है। शेष कल बात करेंगे।
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