Book Title: Gita Darshan Part 01
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 428
________________ और सब कर्मों को अच्छी प्रकार करता हुआ उनसे भी वैसा ही करावे । गीता दर्शन भाग - 14 य हसू बहुमूल्य है। बहुत-सी दिशाओं से इसे समझना हितकर है। ज्ञानीजन को चाहिए कि अज्ञानियों के मन कर्म के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न न करे। ज्ञानीजन को चाहिए कि अज्ञानीजनों के जीवन में उत्पात न हो जाए, इसका ध्यान रखे। ज्ञानी की स्थिति वस्तुतः बहुत नाजुक । नाजुक उसी तरह, जैसे किसी पागलखाने में उस आदमी की होती है, जो पागल नहीं है। पागलखाने में पागल इतनी नाजुक स्थिति में नहीं होते, जितनी नाजुक स्थिति में वह आदमी होता है, जो पागल नहीं होता है। मैं अपने एक मित्र को जानता हूं, जो पागल हो गए थे। घर से भाग गए। चोरी, और-और न मालूम क्या - क्या पागलपन किया। अपना नाम-पता भी भूल गए। फिर किसी अदालत ने उन्हें डेढ़ साल की सजा दे दी और लाहौर के पागलखाने में बंद करवा दिया। छह महीने तक तो वे पूरे पागल थे। किसी दिन भूल-चूक से पागलखाने के अधिकारियों की, फिनाइल का पूरा डब्बा मिल गया, वे उसको पी गए। फिनाइल पी जाने से कुछ हुआ - कभी ऐसा हो जाता है— कि उनको इतने कै दस्त हुए कि उनक पागलपन कै- दस्त में निकल गया। पांच-सात दिन के बाद वे बिलकुल स्वस्थ हो गए। पागल न रहे। में तो वे मुझे कहते थे कि मुझे सालभर फिर गैर-पागल हालत में पागलों के बीच बितानी पड़ी। और वह जो कष्ट मैंने देखा जिंदगी में, उसका कोई हिसाब नहीं। जब तक पागल था, मुझे कष्ट का कोई पता ही नहीं था। क्योंकि जो दूसरे कर रहे थे, वही मैं भी कर रहा था। सब लाजिकल मालूम होता था । सब ठीक मालूम होता था। अगर कोई मेरा सिर हिला देता था, पैर खींच लेता था, कुछ गड़बड़ नहीं मालूम होती थी, सब ठीक मालूम होता था । जब मैं ठीक हो गया, तब उपद्रव शुरू हुआ। क्योंकि अब मैं दूसरे के पैर नहीं खींच सकता था, लेकिन दूसरे तो मेरे खींचे ही चले जा रहे थे। और जितना ही मैं अधिकारियों से कहता कि मैं बिलकुल ठीक हूं, तो वे कहते, यह तो सभी पागल कहते हैं। अगर न कहूं कि मैं बिलकुल ठीक हूं, तो कोई सुनने वाला नहीं है; अगर कहूं, तो भी • कोई सुनने वाला नहीं। क्योंकि वे कहते, यह तो सभी पागल कहते हैं। कौन पागल है, जो मानता है कि मैं पागल हूं! एक साल पागलखाने में गैर- पागल को बितानी पड़ी। ज्ञानी की हालत करीब-करीब अज्ञानियों के बीच ऐसी ही डेलिकेट, ऐसी ही नाजुक हो जाती है। अगर ज्ञानी अपने ज्ञान के अनुसार आचरण करे, तो अनेक अज्ञानियों के लिए भटकने का कारण बन सकता है। अगर ज्ञानी अपने शुद्ध आचरण में जीए, तो अनंत अज्ञानियों के लिए और गहन अंधकार में, गहन नर्क में गिरने का कारण बन सकता है। अगर ज्ञानी अपने शुद्ध ज्ञान की बात भी कहे, तो अनेक अज्ञानियों के जीवन को अस्तव्यस्त कर देगा। ज्ञानी कैसे आचरण करे; क्या कहे, क्या न कहे; कैसे उठे, कैसे बैठे; क्या बोले, क्या न बोले - यह बड़ा नाजुक मामला है। और कई बार जब ज्ञानी इतना स्मरण नहीं रखता, तो नुकसान पहुंचता है। बहुत बार पहुंचा है। क्योंकि ज्ञानी जहां से बोलता है, वहां से वह अज्ञानी के चित्त में प्रकाश का द्वार खोले, यह जरूरी नहीं है। जरूरी नहीं है कि उसकी वाणी, उसका आचरण सूर्य का द्वार बन जाए अज्ञानी के जीवन में। यह भी हो सकता है कि अज्ञानी का जो टिमटिमाता दीया था, जिसकी रोशनी में वह किसी तरह टटोलकर | जी लेता था, वह भी बुझ जाए। इतना तो निश्चित है कि जिसने सूर्य को देखा, वह कहेगा, बुझा दो दीयों को, इनसे क्या होने वाला है। इतना तो निश्चित है, जिसने | अनासक्त कर्म को अनुभव किया, वह कहेगा, पागलपन कर रहे हो तुम। लेकिन पागलपन कह देने से कुछ पागलपन नहीं होता । और पागल एक चीज को छोड़कर दूसरे को पकड़ ले, तो भी कुछ फर्क नहीं पड़ता; अंतर जरा भी नहीं आता। वह आदमी वही का वही रह जाता है। सिर्फ रूप, आकार बदल जाते हैं। ..इसलिए कृष्ण यहां एक बहुत महत्वपूर्ण सूत्र कह रहे हैं। शायद इस सदी के लिए और भी ज्यादा महत्वपूर्ण, क्योंकि इस सदी का सारा उपद्रव अज्ञानियों के कारण कम और ज्ञानियों के कारण ज्यादा है। फ्रायड ने कुछ सत्य उपलब्ध किए, ये सत्य नए नहीं हैं। ये सत्य पतंजलि को भी पता हैं; ये सत्य मौलिक नहीं हैं। ये सत्य गौतम बुद्ध को भी पता हैं; ये सत्य कोई बहुत नूतन आविष्कार नहीं हैं। जिन्होंने भी जीवन की गहराई में प्रवेश किया है, उन्हें इनका सदा ही पता रहा है। लेकिन फिर भी ये सत्य इस भांति कभी नहीं कहे गए थे, जिस भांति फ्रायड ने कहे हैं। फ्रायड को कृष्ण के इस सूत्र का कोई पता नहीं है। इसलिए इन सत्यों से लाभ नहीं हुआ, हानि | हुई है। इसलिए इन सत्यों से मंगल नहीं हुआ, अमंगल हुआ है। कृष्णमूर्ति जो कहते हैं, वह कृष्ण को भलीभांति पता था, बुद्ध 398

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