Book Title: Gita Darshan Part 01
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

View full book text
Previous | Next

Page 434
________________ Sim+ गीता दर्शन भाग-1 AM तस्वविसु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः । बर्नार्ड शा जैसे बुद्धिमान आदमी से ऐसी बात की आशा नहीं हो गुणा गुणेषु वर्तन्ते इति मत्वा न सज्जते ।। २८।। | सकती थी। तो किसी आदमी ने सभा में खड़े होकर पूछा कि आप परंतु हे महाबाहो, गुण-विभाग और कर्म-विभाग को जानने क्या कह रहे हैं! अब तो सिद्ध हो चुका है कि जमीन ही सूरज के वाला ज्ञानी पुरुष, संपूर्ण गुण गुणों में ही बर्तते हैं, ऐसा चक्कर लगाती है। आपके पास क्या प्रमाण है ? बर्नार्ड शा ने कहा, मानकर आसक्त नहीं होता है। मुझे प्रमाण की जरूरत नहीं। इतना ही प्रमाण काफी है कि बर्नार्ड शा जिस जमीन पर रहता है, वह जमीन किसी का चक्कर नहीं लगा सकती। सूरज ही चक्कर लगाता है। H वन को दो प्रकार से देखा जा सकता है। एक तो, जैसे सारा मनुष्य का अहंकार सोचता है कि वही केंद्र पर है और सब UIT जीवन का केंद्र हम हैं, मैं हूं और सारा जीवन परिधि | कुछ। अज्ञानी की यह दृष्टि है, सेंटर जो है जगत का, वह मैं हूं। __ है। कील मैं हूं और सारा जीवन परिधि है। अज्ञान की | | जैसे गाड़ी का चाक घूमता है कील पर, ऐसे कील मैं हूं; और सब यही मनोदशा है। अज्ञानी केंद्र पर होता है, सारा जगत उसकी | कछ, विराट मेरे ही आस-पास घूम रहा है। परिधि पर घूमता है। सब कुछ उसके लिए हो रहा है और सब कुछ | ज्ञानी की मनोदशा इससे बिलकुल उलटी है। ज्ञानी कहता है, उससे हो रहा है। न तो वह यह देख पाता है कि प्रकृति के गुण काम केंद्र हो कहीं भी, हम परिधि पर हैं, यह भी परमात्मा की बहुत कृपा करते हैं, न वह यह देख पाता है कि परमात्मा की समग्रता कर्म | | है। केंद्र तो हम नहीं हैं। ज्ञानी कहता है, केंद्र मैं नहीं हूं। केंद्र अगर करती है। जो कुछ भी हो रहा है, वही करता है। उसकी स्थिति ठीक | | होगा, तो परमात्मा होगा। हम तो परिधि पर उठी हुई लहरों से ज्यादा वैसी होती है, जैसे मैंने एक कहानी सुनी है कि छिपकली राजमहल | | नहीं हैं। कोई उठाता है, उठ आते हैं। कोई गिराता है, गिर जाते हैं। की दीवार पर छत से लटकी है और भयभीत है कि अगर वह छत कोई करवाता है, कर लेते हैं। कोई रोक देता है, रुक ज जाते हैं। किसी से हट जाए, तो कहीं छत गिर न जाए! वही संभाले हुए है! का इशारा जिंदगी बन जाती है; किसी का इशारा मौत ले आती है। कुछ ही समय पहले, कोपरनिकस के पहले, आज से कुल तीन न हमें जन्म का कोई पता है, न हमें मृत्यु का कोई पता है। न हमें सौ वर्ष पहले आदमी सोचता था कि जमीन केंद्र है सारे यूनिवर्स | पता है कि श्वास क्यों भीतर जाती है और क्यों बाहर लौट जाती है। का, सारे विश्व का। चांद-तारे जमीन के आस-पास घूमते हैं। नहीं, हमें कोई भी पता नहीं है कि हम क्यों हैं, कहां से हैं, कहां के सूरज जमीन का चक्कर लगाता है। दिखाई भी पड़ता है। सुबह | लिए हैं। उगता है, सांझ डूबता है। कोपरनिकस ने एक बड़ी क्रांति उपस्थित | | तो ज्ञानी कहता है, विराट का कर्म है और मैं तो उस कर्मों की कर दी आदमी के मन के लिए, जब उसने कहा कि बात बिलकुल लहरों पर एक तिनके से ज्यादा नहीं हूं। इसलिए कर्म मेरा नहीं, कर्म उलटी है: सरज जमीन के चक्कर नहीं लगाता. जमीन ही सरज के विराट का है। और जो भी फलित हो रहा है—हार या जीत, सुख चक्कर लगाती है। बहुत धक्का पहुंचा। धक्का इस बात से नहीं | | या दुख, प्रेम या घृणा, युद्ध या शांति—जो भी घटित हो रहा है पहुंचा कि हमें कोई फर्क पड़ता है कि चक्कर कौन लगाता है, सूरज | | | जगत में, वह प्रकृति के गुणों से घटित हो रहा है। ऐसा जो व्यक्ति लगाता है कि जमीन लगाती है। हमें क्या फर्क पड़ता है? नहीं, । जान लेता है, उसके जीवन में अनासक्ति फलित हो जाती है। उसके धक्का इस बात से पहुंचा कि आदमी जिस जमीन पर रहता है, वह | | जीवन में फिर आसक्ति का जहर नहीं रह जाता है। फिर आसक्ति जमीन भी चक्कर लगाती है! मैं जिस जमीन पर रहता हूं, वह जमीन | की बीमारी नहीं रह जाती है। भी चक्कर लगाती है सूरज का! ___ एक घटना मैंने सुनी है। मैंने सुना है, एक झेन फकीर हुआ, आदमी ने हजारों वर्ष अपने अहंकार के आस-पास सारे विश्व | रिझाई। वह एक गांव के रास्ते से गुजरता था। एक आदमी पीछे से को चक्कर लगवाया। कोपरनिकस का मजाक उड़ाते हुए और | | आया, उसे लकड़ी से चोट की और भाग गया। लेकिन चोट करने आदमी का मजाक उड़ाते हुए बर्नार्ड शा ने एक बार कहा था कि में उसके हाथ से लकड़ी छूट गई और जमीन पर नीचे गिर गई। कोपरनिकस की बात गलत है। यह बात झूठ है कि जमीन सूरज | रिझाई लकड़ी उठाकर पीछे दौड़ा कि मेरे भाई, अपनी लकड़ी तो का चक्कर लगाती है। सूरज ही जमीन का चक्कर लगाता है। लेते जाओ। पास एक दुकान के मालिक ने कहा, पागल हो गए 1404

Loading...

Page Navigation
1 ... 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512