Book Title: Gita Darshan Part 01
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

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Page 427
________________ 2 वर्ण व्यवस्था की वैज्ञानिक पुनर्स्थापना - समझ के कारण पैदा हुई है। अर्जुन समझ ही नहीं सकता कि बिना कृष्ण को उस कांटे पर थोड़ा आटा भी लगाना पड़ता है। वह कारण भी कोई कर्म हो सकता है, अकारण भी, अनकान्ड, | | आटा लोकमंगल का है। तो शायद अर्जुन लोकमंगल के लिए...। अनकंडीशनल. बेशर्त। कि जहां कोई वजह नहीं है. तो वहां क्यों। क्यों? लेकिन अगर अर्जुन की जगह ब्राह्मण होता, तो लोकमंगल काम करूं? हम भी पूछेगे, हम भी कहेंगे कि यह तो बिलकुल काम नहीं करता शब्द। क्षत्रिय को काम कर सकता है। क्षत्रिय को पागल का काम हो जाएगा। जब कोई भी कारण नहीं है, तो काम काम कर सकता है। अगर बुद्ध से कृष्ण ने कहा होता कि करें ही क्यों? हमारा वही आसक्त मन पूछ रहा है। आसक्त मन लोकमंगल के लिए रुके रहो राजमहल में, वे कहते, कोई कहता है, कारण हो, तो काम करो। कारण न हो, तो मत करो। यह लोकमंगल नहीं है। जब तक आत्मा का मंगल नहीं हुआ, तब तक हमारे आसक्त मन की शर्त है। यह हमारा आसक्त मन या तो लोकमंगल हो कैसे सकता है? बुद्ध स्पष्ट कह देते कि बंद करो कहता है कि लोभ हो, तो काम करो; लोभ न हो, तो मत करो, । गीता, हम जाते हैं! विश्राम करो। यह आसक्त मन का तर्क है। वह आदमी ब्राह्मण है। उस आदमी पर कृष्ण की गीता काम न __ अर्जुन तो आसक्त है। अभी वह अनासक्त हुआ नहीं। कृष्ण को करती उस तरह से, जिस तरह से अर्जन पर काम कर सकती है। उसको ध्यान में रखकर एक बात और कहनी पड़ती है। अन्यथा असल में कृष्ण ने फिर यह गीता कही ही न होती। यह गीता एड्रेस्ड इतना कहना काफी है कि जैसे अज्ञानी आसक्तजन कर्म करते हैं, है। यह अर्जुन के लिए, क्षत्रिय व्यक्तित्व के लिए है। इस पर पता ऐसा ही तू अनासक्त होकर कर। अभिनेता हो जा। लेकिन इतना लिखा है। इसलिए वे कहते हैं, लोकमंगल के लिए। क्योंकि क्षत्रिय अर्जुन के लिए काफी नहीं होगा। अर्जुन के लिए थोड़ा-सा कारण के मन में, लोग क्या कहते हैं, इसका बड़ा भाव है। शक्ति के चाहिए। तो कृष्ण कहते हैं, दूसरों के हित के लिए! दूसरों के हित आकांक्षी के मन में, लोग क्या कहते हैं, लोगों का क्या होता है, के लिए तू कर। क्यों? इतना झूठ भी क्यों? है वह झूठ। झूठ इस इसका बड़ा भाव है। क्षत्रिय अपने पर पीछे, लोगों की आं अर्थों में ऐसा नहीं है कि दूसरों का हित नहीं होगा; ध्यान रखें, पहले देखता है। लोगों की आंखों में देखकर ही वह अपनी चमक दूसरों का हित होगा, उस अर्थ में झूठ नहीं है-झूठ इस अर्थों में | पहचानता है। कि अनासक्त कर्म के लिए इतनी शर्त भी उचित नहीं है। इसलिए कृष्ण बार-बार अर्जुन को कहते हैं, लोकमंगल के ___ इसलिए मैं आपसे कहना चाहूंगा कि कृष्ण, बुद्ध और महावीर | लिए। ऐसा नहीं है कि लोकमंगल नहीं होगा, लोकमंगल होगा। के सभी वचन पूर्ण सत्य नहीं हैं; उनमें थोड़ा असत्य आता है। उनके लेकिन वह गौण है, वह हो जाएगा; वह बाइप्रोडक्ट है। लेकिन कारण, जिनसे वे बोले गए हैं। क्योंकि पूर्ण सत्य अर्जुन नहीं समझ कृष्ण को जोर देना पड़ता है लोकमंगल के लिए, क्योंकि वे जानते सकता। पूर्ण सत्य बुद्ध के सुनने वाले नहीं समझ सकते। पूर्ण सत्य हैं, सामने जो बैठा है, शायद लोगों के मंगल के लिए ही रुक जाए। बोलना हो, तो असत्य मिश्रित होता है। और अगर पूर्ण सत्य ही | शायद लोगों की आंखों में उसके लिए जो भाव बनेगा, उसके लिए बोलना हो और असत्य मिश्रित न करना हो, तो चुप रह जाना पड़ता | | रुक जाए। क्षत्रिय है। यद्यपि रुक जाए, तो कृष्ण धीरे-धीरे उसे उस है, बोलना नहीं पड़ता। इन दो के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है। अनासक्ति पर ले जाएंगे, जहां आटा निकल जाता है और कांटा ही इस दूसरे हिस्से में अर्जुन को कारण बताया जा रहा है। वह | रह जाता है। एक-एक कदम, एक-एक कदम बढ़ना होगा। और कारण वैसे ही है जैसे हम मछलियों के लिए, पकड़ने के लिए आटा कृष्ण एक-एक कदम ही बढ़ रहे हैं। और आटे के भीतर कांटा लगाकर डाल देते हैं। मछली कांटा नहीं पकड़ेगी, भाग खड़ी होगी। अर्जुन भी शुद्ध अनासक्त कर्म नहीं पकड़ सकता। वह कहेगा, फिर करें ही क्यों? यही तो मैं कह रहा न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसंगिनाम् । हूं माधव! वह कहेगा, यही तो मैं कह रहा हूं कृष्ण! कि जब जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् । । २६ । । अनासक्ति ही है, तो मैं जाता हूं। कर्म क्यों करूं? यही तो मैं कह | तथा ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि कमों में आसक्ति वाले रहा हूं! आप भी यही कह रहे हैं, तो मुझे जाने दें। इस युद्ध से | अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न बचाएं, इस भयंकर कर्म में मुझे न जोतें। करे, किंतु स्वयं परमात्मा के स्वरूप में स्थित हुआ 397

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