Book Title: Gita Darshan Part 01
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Rebel Publishing House Puna

View full book text
Previous | Next

Page 406
________________ - गीता दर्शन भाग-1-m तू शास्त्र-सम्मत...। इसका यह मतलब नहीं है कि वेद में लिखा | से उसके साथ बह। अपने आप वह घड़ी आ जाती है—जीवन के है, इसलिए। इसका कुल मतलब इतना कि उस दिन तक जितने भी | समस्त कर्मों को करते हुए, अपने को कर्ता भर मत मान और वह समझदार लोग हुए थे, सब ने यही कहा, इसलिए। सब ने निरपवाद | | घड़ी आ जाती है-जिस दिन करना और न-करना, हार और जीत, रूप से यही कहा, इसलिए। जो भी जाना गया है, वह इसकी | जीवन और मृत्यु, सुख और दुख सब बराबर हो जाते हैं। सहमति देता है कि तू ऐसे जीवन के साथ बह और एक दिन वह घड़ी आएगी जिस दिन करना और न-करना बराबर हो जाएगा। लेकिन उसे आने दे, उसके लिए दौड़-धूप मत कर। भागकर उसे | तस्मादसक्तः सततं कार्य कर्म समाचार। . नहीं पाया जा सकता। जिंदगी से बचकर तू उसे नहीं ला सकता। असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः ।। १९ ।। जिंदगी में उतर गहरा और जिंदगी को ही तुझे पार निकालने दे, कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः । जिंदगी ही तुझे पार कर दे। लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि ।। २० ।। पानी का एक नियम और फिर हम दूसरा सूत्र लें-अगर इससे तू अनासक्त हुआ निरंतर कर्तव्य-कर्म का अच्छी कभी आप पानी में गिर गए हों और तैरना न जानते हों, या तैरना प्रकार आचरण कर, क्योंकि अनासक्त पुरुष कर्म करता जानते हों और कभी पानी में भंवर पड़ते हैं, उसमें आप फंस गए। हुआ परमात्मा को प्राप्त होता है। हों, तो कृष्ण के इस सूत्र को याद रखना। यह जीवन के भंवर का जनकादि ज्ञानीजन भी आसक्तिरहित कर्म द्वारा ही परम सूत्र नदी के भंवर में भी काम आता है। अगर नदी के भंवर में फंस सिद्धि को प्राप्त हुए हैं, इसलिए तथा लोकसंग्रह को देखता गए हैं, तो हम साधारणतः क्या करेंगे? लड़ेंगे भंवर से। लड़ेंगे कि | हुआ भी तू कर्म करने को ही योग्य है। डूबेंगे, लड़े कि डूबे। क्योंकि जितने जोर से भंवर से आप लड़ेंगे, आपकी शक्ति कम होगी, भंवर की कम नहीं होगी। और जितनी आपकी कमजोर होगी शक्ति, भंवर की ताकत उतनी ही ज्यादा हो 27 नासक्तिपूर्वक-कृष्ण कह रहे हैं कि इस भांति तु कर्म जाएगी-तुलनात्मक, रिलेटिवली। और थोड़ी देर में आप थक 1 से मत भाग; भागने की मत सोच। न तो वह संभव गए होंगे, भंवर अपनी ताकत में होगा। उतनी ही ताकत में, जितना | है, न उपादेय। संभव भी यही है. उपादेय भी यही कि तब था, जब लड़ाई शुरू हुई। फिर वह आप, कमजोर आदमी को | तू अनासक्त कर्म में प्रवृत्त हो। नीचे डुबा लेगा। इस अनासक्त शब्द को थोड़ा समझें। साधारणतः हमारे जीवन इसलिए जो लोग तैरने का शास्त्र जानते हैं, वे कहते हैं कि में अनासक्त होने का कोई अनभव नहीं होता। इसलिए यह शब्द अगर भंवर में फंस जाओ, तो लड़ना मत। अपनी तरफ से भंवर | बहुत विजातीय, फारेन है। यह हमारे अनुभव में कहीं होता नहीं। में डूब जाना। भंवर के साथ ही डूब जाना। भंवर के साथ खूबी | इसलिए इसे और भी ठीक से समझना पड़ेगा। यह है कि भंवर नदी की सतह पर बड़ा होता है और नीचे छोटा __ हमारे अनुभव में दो शब्द आते हैं, आसक्त और विरक्त; होता जाता है; उसके वर्तुल छोटे होते जाते हैं नीचे। उसका स्क्रू अनासक्त कभी नहीं आता। या तो हम किसी चीज की तरफ छोटा होता जाता है नीचे। ऊपर से निकलना बहुत मुश्किल है। आकर्षित होते हैं और या किसी चीज से विकर्षित होते हैं, या तो नीचे वह इतना छोटा हो जाता है कि उसके भीतर रहना मुश्किल अट्रैक्ट होते हैं या रिपेल्ड होते हैं। सुंदर हुआ कुछ, तो आकर्षित है, आप एकदम बाहर हो जाते हैं। और अगर लड़े, तो बहुत होते हैं; कुरूप हुआ कुछ, तो विकर्षित होते हैं। सुंदर हुआ, तो मुश्किल है। अगर नहीं लड़े, उसके साथ डूब गए, तो खुद भंवर आसक्ति बनती है मन में पाने की। सुंदर नहीं हुआ, तो विरक्ति ही आपको अपने बाहर कर देता है। बनती है मन में छोड़ने की। या तो हम दौड़ते हैं किसी चीज को पाने जीवन का भंवर भी अगर हम उससे लड़ें, तो उलझ जाते हैं। |के लिए और या हम दौड़ते हैं किसी चीज से बचने के लिए। ये दो कृष्ण कहते हैं कि जीवन का, सृष्टि का जो क्रम है, उसके साथ ही हमारे अनुभव हैं। या तो हम किसी चीज की तरफ जाते हैं या किसी बह, जल्दी मत कर। जल्दी हो नहीं सकती; जल्दी मत कर, धैर्य चीज की तरफ से जाते हैं। बाकी अनासक्ति बड़ी और बात है, इन 376

Loading...

Page Navigation
1 ... 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512