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+ गीता दर्शन भाग-14
है, उस तक भी डांवाडोल भंवर पहुंचने लगते हैं। वह जो गहरे में छिपी प्रज्ञा है, वह भी कंपित होने लगती है। क्योंकि जब स्मृति की आधारशिलाएं गिर जाती हैं, तो उसके ऊपर अव्यक्त का जो भवन है, शिखर है, वे भी कंपने लगते हैं। वह अंतिम पतन है। और जब बुद्धि- नाश हो जाता है, तो सब खो जाता है।
कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, जब बुद्धि - नाश हो जाता है, तो सब खो जाता है। फिर कुछ भी बचता नहीं। वह आदमी की परम दीनता है, बैंक्रप्सी, दिवालियापन है। वहां आदमी बिलकुल दिवालिया हो | जाता है— धन खोकर नहीं, स्वयं को ही खो देता है। फिर उसके पास कुछ बचता ही नहीं। वह बिलकुल ही नकार हो जाता है । ना-कुछ हो जाता है। उसका सब ही खो जाता है। यही दीनता है, यही दरिद्रता है। अगर अध्यात्म के अर्थों में समझें, ऐसी स्थिति स्प्रिचुअल पावर्टी है; ऐसी स्थिति आध्यात्मिक दारिद्र्य है।
लेकिन हम भौतिक दारिद्र्य से बहुत डरते हैं, आध्यात्मिक दारिद्र्य से जरा भी नहीं डरते। हम बहुत डरते हैं कि एक पैसा न खो जाए। आत्मा खो जाए- हम नहीं डरते। हम बहुत डरते हैं कि को न खो जाए, कमीज न खो जाए। लेकिन जिसने कोट और कमीज पहना है, वह खो जाए – हमें जरा भी फिक्र नहीं। कोट और कमीज बच जाए, बस बहुत है । वस्तुओं को बचा लेते हैं, स्वयं को खो देते हैं।
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खोने की जो प्रक्रिया कृष्ण ने कही, वह बहुत ही मनोवैज्ञानिक है। अभी पश्चिम का मनोविज्ञान या आधुनिक मनोविज्ञान इतने गहरे नहीं जा सका है। जाएगा, कदम उठने शुरू हो गए हैं, लेकिन इतने गहरे नहीं जा सका है। अभी पश्चिम का मनोविज्ञान काम के आस-पास ही भटक रहा है, सेक्स के आस-पास ही भटक रहा है।
अभी पश्चिम का चाहे फ्रायड हो और चाहे कोई और हो, अभी पहले वर्तुल पर ही भटक रहे हैं, जहां काम है। अभी उन्हें पता नहीं है कि काम के बाद और गहरे में क्रोध है, क्रोध के बाद और गहरे में मोह है, मोह के और गहरे में स्मृति- नाश है, स्मृति-नाश के और गहरे में बुद्धि का दिवालियापन है, बुद्धि के दिवालियापन के और गहरे में स्वयं का पूर्णतया नकार हो जाना है।
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् । आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ।। ६४ । परंतु, स्वाधीन अंतःकरण वाला पुरुष राग-द्वेष से रहित,
अपने वश में की हुई इंद्रियों द्वारा विषयों को भोगता हुआ प्रसाद अर्थात अंतःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है।
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क इसके विपरीत - पतन की जो कहानी थी, ठीक इसके विपरीत - राग-द्वेष से मुक्त, कामना के पार, स्वयं में ठहरा, स्वायत्त । स्वयं को खो चुका; और स्वयं में ठहरा। अभी जो कहानी हमने समझी, अभी जो कथा हमने समझी, अभी जो यात्रा हमने देखी, वह स्वयं को खोने की। और स्वयं को कैसे खोता है सीढ़ी-सीढ़ी आदमी, वह हमने देखा । स्वयं से कैसे रिक्त और शून्य हो जाता है। स्वयं से कैसे बाहर, और बाहर, और दूर हो जाता है। कैसे स्वयं को खोकर पर में ही आयत्त हो जाता है, पर में ही ठहर जाता है।
जिसको मैंने कहा, आध्यात्मिक दिवालियापन, स्प्रिचुअल बैंक्रप्सी, उसका मतलब है, पर में आयत्त हुआ पुरुष। यह जो पूरी की पूरी यात्रा थी, पर में आयत्त होने से शुरू हुई थी । देखा था राह पर किसी स्त्री को, देखा था किसी भवन को, देखा था किसी पुरुष को, देखा था चमकता हुआ सोना, देखा था सूरज में झलकता हुआ हीरा - पर, दि अदर, कहीं पर में आकर्षित चित्त पर की खोज पर निकला था। चिंतन किया था, चाह की थी, बाधाएं पाई थीं, क्रोधित . | हुआ था, मोहग्रस्त बना था, स्मृति को खोया था, बुद्धि के नाश को
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उपलब्ध हुआ था। पर-आयत्त, दूसरे में - दि अदर ओरिएंटेड । मनोविज्ञान जो शब्द उपयोग करेगा, वह है, दि अदर ओरिएंटेड । तो बड़ी मजे की बात है कि कृष्ण ने स्वायत्त, सेल्फ ओरिएंटेड शब्द का उपयोग किया है। पर आयत्त, दूसरे की तरफ बहता हुआ पुरुष, दूसरे को केंद्र मानकर जीता हुआ पुरुष। इस पुरुष शब्द को थोड़ा समझें, तो इस पर आयत्त और स्वायत्त होने को समझा जा सकता है।
शायद कभी खयाल न किया हो कि यह पुरुष शब्द क्या है ! सांख्य का शब्द है पुरुष । गांव को हम कहते हैं पुर-नागपुर, | कानपुर — गांव को हम कहते हैं पुर। सांख्य कहता है, पुर के भीतर जो छिपा है, वह पुरुष, पुर में रहने वाला। शरीर है पुर । कहेंगे, इतना छोटा-सा शरीर पुर! बहुत बड़ा है, छोटा नहीं है। बहुत बड़ा है। कानपुर की कितनी आबादी है ? पांच लाख, छः लाख, सात लाख होगी। शरीर की कितनी आबादी है ? सात करोड़ । सात करोड़ जीवाणु रहते हैं शरीर में छोटा पुर नहीं है, सात करोड़