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Im- गीता दर्शन भाग-1 -
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।
का पता तो किसी को भी नहीं चल सकता है। ईश्वर के न होने का अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ।। १६ ।। पता तो तभी चल सकता है, जब कि कुछ भी जानने को शेष न रह
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः । जाए। जब तक कुछ भी जानने को शेष है, तब तक कोई आदमी आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्य न विद्यते ।। १७ ।। हकदार नहीं कि कहे कि ईश्वर नहीं है। क्योंकि जो शेष है, उसमें
- नैव तस्य कृतेनाथों नाकृतेनेह कश्चन । ईश्वर हो सकता है। ईश्वर के न होने का पता इसलिए किसी को न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ।।१८।। भी नहीं चल सकता है। लेकिन ढेर लोग हैं, जो कहेंगे, ईश्वर नहीं हे पार्थ, जो पुरुष इस लोक में इस प्रकार चलाए हुए | है। बिना पता चले वे क्यों कहते होंगे कि ईश्वर नहीं है? . सृष्टि-चक्र के अनुसार नहीं बर्तता है (अर्थात शास्त्र के असल में, वे चाहते हैं कि ईश्वर न हो। ईश्वर न हो, तो फिर अनुसार कर्मों को नहीं करता है, वह इंद्रियों के सुख को | जीवन के क्रम के साथ बहने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। ईश्वर भोगने वाला पाप-आय पुरुष व्यर्थ हा जीता है। न हो, तो फिर जीवन से लड़ा जा सकता है। ईश्वर हो, तो जीवन
परंतु, जो मनुष्य आत्मा ही में प्रीति वाला से लड़ा नहीं जा सकता। ईश्वर हो, तो जीवन के साथ एक ही हुआ और आत्मा ही में तृप्त तथा आत्मा में ही संतुष्ट होवे, जा सकता है। ईश्वर नहीं है, ऐसा कोई अनुभव में किसी के कभी ___ उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है।
नहीं आता। लेकिन जो लोग जीवन से लड़ना चाहते हैं, वे ईश्वर क्योंकि, इस संसार में उस पुरुष का किए जाने से भी नहीं है, ऐसा बिना माने लड़ नहीं सकते। इसलिए जीवन से लड़ने कोई प्रयोजन नहीं है और न किए जाने से भी कोई प्रयोजन | वाले सभी शास्त्र, जीवन से लड़ने वाले सभी वाद ईश्वर को नहीं है तथा इसका संपूर्ण भूतों में कुछ भी स्वार्थ का संबंध | इनकार करने से शुरू होते हैं। नहीं है। तो भी उसके द्वारा केवल लोकहितार्थ ___ आश्चर्यजनक लगती है कभी यह बात कि मार्क्स या एंजिल्स ____कर्म किए जाते हैं।
या लेनिन या स्टैलिन या माओ, जो लोग जीवन से लड़ने की | धारणा मन में लिए हुए हैं, उनको अपने वाद का प्रारंभ, ईश्वर नहीं
है, इस बात से करना पड़ता है। असल में लड़ना हो, तो ईश्वर को 1 ष्टि के क्रम के अनुसार! कृष्ण पहली बात इस सूत्र में अस्वीकार कर देना जरूरी है। ईश्वर से लड़ा नहीं जा सकता; उससे
कह रहे हैं, सृष्टि के क्रम के अनुसार...। इसे समझ | | तो सिर्फ प्रेम ही किया जा सकता है; उससे तो प्रार्थना ही की जा ८ लें, तो बाकी बात भी समझ में आ सकेगी। जीवन दो ढंग से जीया जा सकता है। एक तो सष्टि के क्रम के इस सूत्र में जीवन के क्रम के अनुसार का अर्थ है कि सारा जगत प्रतिकूल-विरोध में, बगावत में, विद्रोह में। और एक सृष्टि के हमसे भिन्न नहीं है, हमसे अलग नहीं है। हम उसमें ही पैदा होते हैं क्रम के अनुसार-सहज, सरल, प्रवाह में। एक तो जीवन की धारा | | और उसी में लीन हो जाते हैं। इसलिए जो व्यक्ति भी इस जगत की के प्रतिकूल तैरा जा सकता है और एक धारा में बहा जा सकता है। जीवन-धारा से लड़ता है, वह रुग्ण और डिसीज्ड हो जाता है; वह संक्षिप्त में कहें तो ऐसा कह सकते हैं कि दो तरह के लोग हैं। एक, बीमार हो जाता है। जो व्यक्ति भी परिपूर्ण स्वस्थ होना चाहता है, जो जीवन में धारा से लड़ते हैं, उलटे तैरते हैं। और एक वे, जो धारा | | उसे जीवन के क्रम के साथ बिलकुल एक हो जाना चाहिए। इस के साथ बहते हैं, धारा के साथ एक हो जाते हैं।
जीवन के क्रम के आधार पर ही भारत ने जीवन की एक सहज सृष्टि-क्रम के अनुसार दूसरी तरह का व्यक्ति जीता है, जीवन | धारणा विकसित की थी। वह मैं आपको कहना चाहूंगा। की धारा के साथ जीवन से लड़ता हुआ नहीं—जीवन के साथ / वर्ण के संबंध में मैंने कुछ आपसे कहा। आज आश्रम के संबंध बहता हुआ। धार्मिक व्यक्ति का वही लक्षण है। अधार्मिक व्यक्ति में कुछ आपसे कहना चाहूंगा। तभी आप समझ सकेंगे कि सृष्टि का उसके प्रतिकूल लक्षण है।
के क्रम के अनुसार का मौलिक अर्थ क्या है। और शास्त्र-सम्मत अधार्मिक व्यक्ति अगर कहता है कि ईश्वर नहीं है, तो इसलिए कर्म करने का अर्थ क्या है। नहीं कि उसे पता चल गया है कि ईश्वर नहीं है। ईश्वर के न होने कृष्ण जब शास्त्र शब्द का प्रयोग करते हैं, तो वे ठीक वैसे ही
| सकती है।
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