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स्वधर्म की खोज -m
वाला है और फिर कर्म को होने दे; और फिर मैं तुझे विश्वास को चलने दे। निष्पाप बताकर उसे, वे जो दूसरी बात कहते हैं, वह दिलाता हूं कि फिर कोई कर्म नहीं छ्ता।
निष्पाप में ले जाने वाली है। पहले उसे कहते हैं, तू निष्पाप है। और पाप नहीं छूता, पाप का कर्ता होना छूता है। पुण्य नहीं छूता, फिर वे जो दूसरा वक्तव्य देते हैं, वह समस्त पापों के बाहर ले जाने पुण्य का कर्ता होना छूता है। अगर ठीक से समझें, आध्यात्मिक | वाला है। वे निष्पाप कहकर चप नहीं हो जाते. वे निष्पाप बनाने अर्थों में समझें, तो करने का खयाल एकमात्र पाप है। कर्ता का बोध के लिए राह भी देते हैं। आश्वासन देकर मान नहीं लेते कि बात एकमात्र पाप है। ओरिजिनल सिन अगर किसी चीज को कहें, मूल | समाप्त हो गई। बात सिर्फ शुरू हुई है। और आदमी पूर्ण निष्पाप पाप, तो कर्ता का खयाल कि मैं कर रहा हूं।
| उसी दिन होता है, जिस दिन पूर्ण अकर्ता हो जाता है। कर्म नहीं लेकिन सोचने जैसा है। इधर कृष्ण तो कहते हैं अर्जुन को कि बांधते, कर्ता बांध लेता है। कर्म नहीं छोड़ते, कर्ता छूट जाए तो कर्ता एक ही है, परमात्मा। तू छोड़। अठारहवीं सदी के बाद सारी | छूटना हो जाता है। दुनिया में हमने परमात्मा को हटाने की कोशिश की है। कास्मिक "ठीक उसके साथ ही दूसरी बात उन्होंने कही, त्याग नहीं आर्डर से, एक जगत की व्यवस्था से हमने कहा कि तुम रिटायर | साक्षात्कार को ले जाता है। हो जाओ। परमात्मा को कहा कि आप छोड़ो। बहुत दिन हो गए, क्यों नहीं ले जाता है त्याग साक्षात्कार को? नहीं ले जाता आप हटो। आदमी को कर्ता बनने दो!
| इसलिए कि हम परमात्मा के सामने सौदे की हालत में खड़े नहीं हो - ध्यान रहे, परमात्मा को अगर हम हटा दें जगत के खयाल | सकते, बारगेनिंग नहीं हो सकती, खरीद-फरोख्त नहीं हो सकती। से—जगत से तो नहीं हटा सकते, अपने खयाल से हटा सकते | त्याग नहीं, समर्पण। हैं-हटा दें, तो आदमी कर्ता हो जाता है। क्या आपने कभी यह इस पर आगे हम बात करेंगे। सोचा कि जिन-जिन समाजों में आदमी कर्ता हो गया और परमात्मा त्यागी कभी समर्पित नहीं होता। त्यागी आदमी कभी समर्पण कर्ता नहीं रहा, वहां मानसिक तनाव अपनी अति पर पहुंच गए हैं। | नहीं करता। वह तो कहता है कि मेरे पास कारण है कि मैंने इतना वहां चिंता भयंकर हो गई है। वहां चित्त एकदम विक्षिप्त होने की : छोड़ा, अब मुझे मिलना चाहिए। समर्पण तो वह करता है, जो हालत में पहंच गया है। क्योंकि सारा बोझ मेरे मैं पर पड़ गया है। | कहता है, मेरे पास तो कुछ भी नहीं है, मैं तो कुछ भी नहीं हं जो दुनिया चल रही है मेरे मैं पर; मैं हो गया है सेंटर।
दावा कर सकूँ कि मुझे मिलना चाहिए। मैं तो सिर्फ प्रार्थना कर आज पश्चिम की सारी सभ्यता मैं पर खड़ी है। इसलिए बड़ी | | सकता हूं, मैं तो सिर्फ चरणों में सिर रख सकता हूं। मेरे पास देने पीड़ा है। न रात नींद है, न दिन चैन है। कहीं कोई शांति नहीं; कहीं | को कुछ भी नहीं है। कोई अर्थ नहीं; सब बेबूझ हो गया है। लेकिन एक बात खयाल में ___ समर्पण वह करता है, जिसके खयाल में यह बात आ जाती है नहीं आती है कि जिस दिन से आदमी कर्ता बनने के खयाल में पड़ा | कि मैं असहाय हूं, टोटल हेल्पलेस हूं। मैं बिलकुल, मेरे पास कुछ है, उस दिन से चिंता उसने पुकार ली है।
भी नहीं है परमात्मा को देने को। रो सकता हूं, चिल्ला सकता हूं, अर्जुन भी चिंता में पड़ गया है। चिंता पैदा ही कर्ता होने के | पुकार सकता हूं; दे तो कुछ भी नहीं सकता। जो इतना दीन, इतना खयाल से पैदा होती है; कर्म से चिंता नहीं होती। आप कितना ही | | दरिद्र, इतना असहाय, इतना बेसहारा पुकारता है, वह समर्पित हो कर्म करें, कर्म चिंता नहीं लाता। और जरा-सा भी कर्ता बने कि | | जाता है, वह साक्षात्कार को उपलब्ध हो जाता है। चिंता आंनी शुरू हो जाती है। एंग्जाइटी जो है, वह कर्ता की छाया | - त्यागी की तो अकड़ होती है, वह बेसहारा नहीं होता। उसके पास है। अर्जुन बड़ा चिंतित है। उसकी सारी चिंता एक बात से है कि | | तो बैंक बैलेंस होता है त्याग का। कहता है कि यह मेरे पास है, इतना वह सोच रहा है, मैं मारने वाला हूँ, मैं न मारूं तो ये न मरेंगे। मैं | | मैंने छोड़ा है—इतने हाथी, इतने घोड़े, इतने मकान-कहां हो, अगर युद्ध न करूं, तो युद्ध बंद हो जाएगा, शांति छा जाएगी। उसे | | बाहर निकलो! त्याग पूरा कर दिया है, साक्षात्कार होना चाहिए। ऐसा लग रहा है कि वही निर्णायक है। कोई निर्णायक नहीं है, | त्यागी के पास तो दंभ होगा ही। त्यागी कभी दंभ के बाहर नहीं समष्टि निर्णायक है; नियति निर्णायक है।
हो पाता। हां, उनकी बात दूसरी है, जिनके दंभ के जाने से त्याग इसलिए कृष्ण उसको कहते हैं कि तू कर्ता को छोड़ और कर्म फलित होता है। पर उनको त्याग का कभी पता नहीं चलता। उनको
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