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गीता दर्शन भाग-1-AM
न मिले, तो मैं मुसीबत में पड़ जाऊंगा। यह मिल जाता है, तो मैं | अर्जुन कि ऐसा व्यक्ति समाधिस्थ है। हल्का हो जाता हूं, अनबर्डन्ड हो जाता हूं, बोझ उतर जाता है।
जैसे एक कुएं में हम बालटी डालते हैं। फिर बालटी में पानी भरकर आ जाता है। लेकिन कुएं में पानी तो होना चाहिए न! बालटी | | प्रश्नः भगवान श्री, स्थितप्रज्ञ के गुण-लक्षण कहते खाली कुएं से पानी नहीं ला सकती, सूखे कुएं से पानी नहीं ला हुए आपने यह तो विशदता की कि उसकी सेंसिटिविटी सकती। खड़खड़ाकर लौट आएगी। कह देगी, नहीं है। दूसरे ब्लंट नहीं होती। तो स्थितप्रज्ञ मनुष्य सुख में आदमी की गाली ज्यादा से ज्यादा बालटी बन सकती है मेरे भीतर। विगतस्पृह रहेगा और दुख में अनुद्विग्नमन रहेगा। तो लेकिन क्रोध वहां होना चाहिए, तब उस बालटी में भरकर बाहर इसमें एक बाधा पड़ जाती है। अगर वह सुख को आ जाएगा।
सुख की भांति और कष्ट को कष्ट की भांति न ले, सब भरा है भीतर। दबा-दबाकर बैठे हैं। बहुत कागजी दबाव तो उसकी संवेदना को झूमन, मानवीय कैसे कहें? है, बड़ा दबाव नहीं है। जरा खरोंच दो, अभी उभर पड़ेगा। लेकिन स्थितप्रज्ञ होना क्या सुपर ह्यूमन फिनामिनन है? उसे देखना जरूरी है।
तो कृष्ण की इस बात से यह मत समझ लेना कि क्रोध को दबा लिया, भय को दबा लिया, तो निश्चित हो गए, समाधिस्थ हो गए, जिसकी प्रज्ञा जागी, थिर हुई, अकंप हुई, क्या उसे कष्ट स्थितधी हो गए! इतना सस्ता मामला नहीं है। दबाने की बजाय क्रोध IUI का पता नहीं चलेगा? को उभारकर ही देखना। और जब कोई गाली दे, तो अपने भीतर
अब यहां एक नया शब्द बीच में आया है, जो अभी देखना, कितना उभरता है! और जब कोई गाली दे, तो उसे धन्यवाद | | चर्चा में नहीं था। सुख था, दुख था, कष्ट नहीं था। इनके फासले देना कि तेरी बड़ी कृपा! तू अगर बालटी न लाता, तो अपने कुएं की को समझना जरूरी होगा। खबर ही न मिलती। ऐसा कभी-कभी बालटी ले आना।
कष्ट तथ्य है, दुख व्याख्या है। पैर में कांटा चुभता है, तो चुभन कबीर ने कहा है, निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय। तथ्य है, फैक्ट है, स्थितप्रज्ञ को भी होगी। स्थितप्रज्ञ मर नहीं गया साधुओं से कबीर ने कहा है कि साधुओ! अपने निंदक को है कि पैर में कांटा चुभे तो पता नहीं चले। पता चलेगा। शायद
आंगन-कुटी छवाकर अपने पड़ोस में ही बसा लो, कि जैसे ही तुम आपसे ज्यादा पता चलेगा। क्योंकि उसकी प्रज्ञा ज्यादा शांत है, बाहर निकलो, वह बालटी डाल दे और तुम्हारे भीतर जो पड़ा है, | | ज्यादा संवेदनशील है। उसकी अनुभूति की क्षमता आपसे गहरी वह तुम्हें दिखाई पड़ जाए। क्योंकि उसे तुम देख लो, उसे तुम | | और घनी है। उसका बोध, उसकी सेंसिटिविटी आपसे प्रगाढ़ है, पहचान लो, तो तुम्हें अपनी असली स्थिति का बोध हो। और जिसे | | अनंत गुना प्रगाढ़ है। शायद आपको जो कांटा चुभा है, इस तरह अपनी असली स्थिति का बोध नहीं है, वह अपनी परम स्थिति को | कभी पता ही नहीं चला होगा, जैसा उसको पता चलेगा। क्योंकि कभी प्राप्त नहीं हो सकता है। जो अपनी वास्तविक, यथार्थ स्थिति | | पता चलना ध्यान की क्षमता पर निर्भर होता है। को जानता है आज के क्षण में, वह अपनी परम स्थिति को, परम | | एक युवक खेल रहा है हाकी मैदान में। पैर पर चोट लग गई है स्वभाव को भी उपलब्ध करने की यात्रा पर निकल सकता है। | हाकी की। खून बह रहा है अंगूठे से। नाखून टूट गया है। उसे कुछ
क्रोध और भय इंगित हैं, सूचक हैं, सिंबालिक हैं, सिंप्टमैटिक पता नहीं है। सारे देखने वाले देख रहे हैं कि पैर से खून टपक रहा हैं। उनसे डायग्नोसिस कर लेना। उनसे अपना निदान कर लेना कि है। वह दौड़ रहा है, और खून की बिंदुओं की कतार बन जाती है। ये हैं, तो मेरे भीतर समाधि नहीं है। लेकिन इनको दबाकर मत सोच | फिर खेल खत्म हुआ और वह पैर पकड़कर बैठ गया है। और वह लेना कि इनको दबाने से समाधि हो जाती है। नहीं, समाधि आएगी कह रहा है कि कब यह चोट लग गई? मुझे कुछ पता नहीं है! क्या तो ये नहीं हो जाएंगे। इनके दबाने से समाधि फलित नहीं होगी। हुआ? चोट लगी और पता नहीं चला! . __ इसलिए कृष्ण ने बहुत ठीक सूत्र कहे, दुख उद्विग्न न करे, सुख ___ असल में जब चोट लगी, तब उसकी अटेंशन कहीं और थी, की आकांक्षा न हो, क्रोध उत्तप्त न करे, भय कंपाए नहीं. तो जानना | ध्यान कहीं और था। और ध्यान के बिना पता नहीं चल सकता।
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