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गीता दर्शन भाग-1 -
होते हैं, तो ऐसा नहीं लगता कि शरीर बूढ़ा हो रहा है, ऐसा लगता | देखने का अवसर तुमने जुटा दिया। तुम भी देख लोगे, हम भी देख है कि मैं बूढ़ा हो रहा हूं।
लेंगे कि कष्ट दुख बनता है या नहीं बनता है। हमारे प्रत्येक तथ्य में हमारा मैं तत्काल समाविष्ट हो जाता है। कष्ट-अकष्ट अलग बात है, सुख और दुख बिलकुल अलग जीवन का कोई तथ्य हमारे मैं की व्याख्या के बाहर नहीं छूटता। हम | बात है। सुख और दुख मनुष्य की व्याख्या है। इसलिए जब आप प्रत्येक तथ्य को तत्काल व्याख्या, इंटरप्रिटेशन बना लेते हैं।। | पूछ रहे हैं कि क्या ऐसा आदमी सुपर ह्यूमन हो जाएगा? स्थितप्रज्ञ की कोई व्याख्या नहीं है। वह अ को अ कहता है, ब को निश्चित ही। सुपर ह्यूमन इन अर्थों में नहीं कि उसे कांटे नहीं ब कहता है। वह कहीं भी अपने को जोड़ नहीं लेता है। और चूंकि | चुभंगे। इन अर्थों में भी अतिमानवीय नहीं कि उसे बीमारी होगी, तो जोड़ता नहीं, इसलिए सदा बाहर खड़े होकर हंस सकता है। पीड़ा नहीं होगी। अतिमानवीय इन अर्थों में नहीं कि मौत आएगी,
मैंने सुना है, इपिक्टेटस यूनान में, जिसको कृष्ण समाधिस्थ | | बुढ़ापा आएगा, तो वह बूढ़ा नहीं होगा। नहीं, अतिमानवीय इन कहें, ऐसा एक व्यक्ति हुआ। वह कहता था, मुझे मार डालो तो भी | | अर्थों में कि वह व्याख्या जो मनुष्य की करने की आदत है, नहीं मैं हंसता रहूंगा, मुझे काट डालो तो भी मैं हंसता रहूंगा। सम्राट ने | | करेगा। वह मनुष्य की व्याख्या करने की आदत के बाहर होगा। इन उसे पकड़ बुलाया और कहा कि छोड़ो ये बातें। हम बातें नहीं | | अर्थों में वह अतिमानव है, सुपरमैन है। मानते, हम कृत्य मानते हैं। दो पहलवान बुलवाए, जंजीरें बांधकर इपिक्टेटस को डाल दिया और कहा कि इसका एक पैर उखाड़ो। उन पहलवानों ने उसका एक पैर उखाड़ने के लिए पैर मोड़ा। यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् । इपिक्टेटस ने कहा कि बिलकुल ठीक, जरा और। अभी तुम जितना नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।। ५७।। कर रहे हो, इससे सिर्फ कष्ट हो रहा है, पैर टूटेगा नहीं। जरा और, ___ यदा संहरते चायं कूमोऽङ्गानीव सर्वशः।। बस जरा और कि टूट जाएगा!
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।। ५८।। सम्राट ने कहा, तू पागल तो नहीं है! अपने ही पैर को तोड़ने | और जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस-उस शुभ तथा की तरकीब बता रहा है! इपिक्टेटस ने कहा कि मुझे ज्यादा ठीक अशुभ वस्तुओं को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष से पता चल रहा है, उन बेचारों को क्या पता चलेगा! दूसरे का
करता है, उसकी प्रज्ञा स्थिर है। पैर मरोड़ रहे हैं। मैं इधर भीतर जान रहा हूं कि तकलीफ बढ़ती | और कछुआ अपने अंगों को जैसे समेट लेता है, वैसे ही यह जा रही है, तकलीफ बढ़ती जा रही है, बढ़ती जा रही है। अब ठीक | पुरुष जब सब ओर से अपनी इंद्रियों को इंद्रियों के विषयों वह जगह है, जहां हड़ी ट जाएगी। पर सम्राट ने कहा. तेरा पैर से समेट लेता है, तब उसकी प्रज्ञा स्थिर होती है। हम तोड़ रहे हैं।
इपिक्टेटस ने कहा कि अगर मुझे तोड़ रहे होते, तो बात और होती। मेरे पैर को ही तोड़ रहे हैं न? तो मेरे पैर को आप नहीं तोड़ेंगे, ह र्ष में, विषाद में, अनुकूल में, प्रतिकूल में भेद नहीं। तो कल मौत तोड़ देगी। और आप तो सिर्फ पैर ही तोड़ रहे हैं, e लेकिन यह अभेद कब फलित होगा? कृष्ण कहते हैं, फुटकर, मौत होलसेल तोड़ देगी, सभी कुछ टूट जाएगा। एक पैर जैसे कछुआ अपने अंगों को कभी भी भीतर सिकोड तोड़ रहे हैं, दूसरा तो बचा है। इपिक्टेटस से हम भीतर कह रहे हैं लेता है, जैसे कछुआ अपने अंगों को सिकोड़ना जानता है, ऐसा ही कि देखो बेटे, एक ही टूट रहा है, अभी दूसरा बचा है। अभी तुम | समाधिस्थ पुरुष विषयों से अपनी इंद्रियों को सिकोड़ना जानता है। इसको ही तुड़वा दो ठीक से।
थोड़ी नाजुक बात है, थोड़ी डेलिकेट बात है। . फिर यह भी हम अनुभव कर रहे हैं-उसने कहा कि जितनी | यहां इंद्रियों को सिकोड़ना...योग की दृष्टि में इंद्रियों के दो देर लगेगी टूटने में, उतनी देर कष्ट होगा। तुम्हारा प्रयोग भी न हो। | रूप हैं। एक इंद्रिय का वह रूप जो हमें बाहर से दिखाई पड़ता है, पाएगा, हमारा प्रयोग भी न हो पाएगा। आज मौका आ गया है। कहें इंद्रिय का शरीर। एक इंद्रिय का वह रूप जो हमें दिखाई नहीं कहा हमने सदा है कि कोई तोड़ डाले हमें, तो कुछ न होगा। आज | | पड़ता है, लेकिन इंद्रिय का प्राण है, कहें इंद्रिय का प्राण या आत्मा
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