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विषय-त्याग नहीं — रस - विसर्जन मार्ग है 4
इंद्रिय की।
एक मेरी आंख है। इंस्ट्रूमेंट है आंख का । इस आंख के संबंध में चिकित्सक आंख का सब कुछ बता सकता है। आंख को काट-पीट करके, सर्जरी करके, एक-एक रग-रेशे की खबर ले आ सकता है। लेकिन यह सिर्फ आंख शरीर है आंख का । वस्तुतः यह इंद्रिय नहीं है। सिर्फ इंद्रिय की बाह्य रूप - आकृति है । इंद्रिय तो | और है। इस आंख के पीछे देखने की जो वासना है, देखने की जो आकांक्षा है, वह इंद्रिय है, वह प्राण है। उसका किसी चिकित्सक को आंख के काटने-पीटने से कुछ पता नहीं चल सकता।
प्रत्येक इंद्रिय का शरीर है और प्रत्येक इंद्रिय का प्राण है। आंख सिर्फ देखने का काम ही नहीं करती, देखने की आकांक्षा, देखने का रस भी उसके पीछे छिपा है। देखने की वासना भी उसके पीछे हिलोरें लेती है। वही वासना असली इंद्रिय है।
कृष्ण को समझने के लिए समस्त इंद्रियों के इन दो हिस्सों को समझ लेना जरूरी है। अन्यथा आदमी आंख फोड़ने लग जाए। इंद्रियां सिकोड़ने का क्या मतलब - आंख फोड़ लें? इंद्रियां सिकोड़ने का क्या मतलब - कान फोड़ लें? इंद्रियां सिकोड़ने का क्या मतलब - जीभ काट डालें ? और आप सोचते हों कि नहीं, ऐसा तो कोई भी नहीं समझता, तो गलत सोचते हैं।
जमीन पर अधिक लोगों ने ऐसा ही सोचा है। ऐसा ही सोचा है। ऐसे साधु हुए हैं, जिन्होंने आंखें फोड़ी हैं। ऐसे साधु हुए हैं, जिन्होंने कान फोड़े हैं। ऐसे साधु हुए हैं, जिन्होंने पैर काट डाले हैं। ऐसे साधु हुए हैं, जिन्होंने जननेंद्रियां काट डाली हैं। मध्ययुग में योरोप में एक बहुत बड़ा ईसाइयों का संप्रदाय था, जिसने लाखों लोगों की जननेंद्रियां कटवा डालीं। स्त्रियों के स्तन कटवा डाले; पुरुषों की जननेंद्रियां कटवा डालीं।
लेकिन क्या आंख के फूट जाने से देखने की वासना फूट जाती है ? क्या जननेंद्रिय के कट जाने से काम की वासना कट जाती है ? तब तो सभी बूढ़े कामवासना के बाहर हो जाएं!
नहीं, इंद्रिय कट जाने से सिर्फ अभिव्यक्ति का माध्यम कट जाता है । और अभिव्यक्त होने की जो प्रबल वासना थी भीतर, वह और विक्षिप्त होकर दौड़ने लगती है। मार्ग न मिलने से वह और पागल हो जाती है, द्वार न मिलने से और विक्षिप्त हो जाती है। हां, दूसरों को पता चलना बंद हो जाता है। वह वासना प्रेत बन जाती है, उसके पास शरीर नहीं रह जाता।
कृष्ण जिस इंद्रिय को सिकोड़ने की बात कर रहे हैं, और कछुए
से जो उदाहरण दे रहे हैं; कछुए के उदाहरण को बहुत मत खींच लेना । गीता पर टीका लिखने वालों ने बहुत खींचा है। आदमी कछुआ नहीं है। कोई उदाहरण पूरे नहीं होते । सब उदाहरण सिर्फ सूचक होते हैं— जस्ट ए इंडिकेशन – एक इशारा, जिससे बात समझ में आ जाए, बस । जैसे कछुआ अपनी इंद्रियों को सिकोड़ लेता है, ऐसा ही स्थितप्रज्ञ, वे जो भीतर की रस इंद्रियां हैं, उन्हें सिकोड़ लेता है। लेकिन रस इंद्रियों का जो बाह्य शरीर है, उसे सिकोड़ने का कोई मतलब नहीं है। उसे सिकोड़ने का मतलब तो सिर्फ मरना है। और उसे काटकर भीतर का रस नहीं कटता । हां, भीतर का रस कट जाए, तो वह इंद्रिय शुद्ध इंस्ट्रूमेंट रह जाती है-वासना का नहीं, सिर्फ व्यवहार का ।
आंख तब देखती है बिना देखने की वासना के । तब जो आंख के सामने आ जाता है, वह देखा जाता है। लेकिन तब आंख कुछ आंख के सामने आ जाए, इसकी आकांक्षा से पीड़ित नहीं होती है। तब जो भोजन सामने आ जाता है, वह कर लिया जाता है। तब जीभ उस भोजन को करने में सहयोग देती है, लार छोड़ती है। लेकिन जो भोजन सामने नहीं है, जीभ फिर उसके लिए लार नहीं टपकाती है । फिर जो कान में पड़ जाता है, वह सुन लिया जाता है। लेकिन फिर कान तड़पते नहीं हैं किसी को सुनने के लिए। नहीं, तब इंद्रियां सिर्फ व्यवहार के माध्यम रह जाती हैं।
ध्यान रहे, जब इंद्रियां व्यवहार के माध्यम रहती हैं, तब वे केवल बाहर से सेंस डेटा इकट्ठा करती हैं, बस । जब इंद्रियां सिर्फ व्यवहार का माध्यम होती हैं, तो बाहर के जगत से तथ्यों की सूचना भीतर देती हैं। और जब इंद्रियां वासना के माध्यम बनती हैं, तब वासनाओं को बाहर ले जाकर विषयों से जोड़ने के उपयोग में लाई जाती हैं।
ये दोनों अलग-अलग फंक्शन हैं, ये दोनों अलग-अलग काम हैं। यह तो आंख का काम है कि वह बताए कि सामने दरख्त है। यह आंख का काम है कि वह बताए कि सामने पत्थर है। यह आंख का काम है कि वह खबर दे कि सामने क्या है। लेकिन जब आंख वासना से भरती है, तो बहुत मजेदार है। '
तुलसीदास भागे हैं पत्नी को खोजने । उस वक्त उनकी आंख फंक्शनल नहीं है, उस वक्त सांप को वे रस्सी समझ लेते हैं। आंख अपना फंक्शन नहीं कर पा रही है। वासना इतनी तीव्र है, रस्सी को ही देखना चाहती है। इसलिए सांप को भी रस्सी देख लेती है। रस्सी ही चाहती है उस वक्त, एक क्षण चैन नहीं है। सामने के दरवाजे से जाएंगे, उचित नहीं; अभी पत्नी को आए देर भी नहीं हुई, वे
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