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mगीता दर्शन भाग-1 AM
फूल है; असली सवाल यह है कि मेरे हाथ में फूल को तोड़ने की। पुलिस में रिपोर्ट लिखाने भागेगा। यह क्या हो रहा है? ये कृष्ण हिंसा है। असली सवाल फूल नहीं है, रहे फूल; अगर मेरे हाथ में | | और नाच रहे हैं? कृष्ण को समझ पाना उसे मुश्किल हो जाएगा। तोड़ने की हिंसा नहीं है, तो मैं निकल जाऊंगा फूल के पास से। | उसके खयाल में भी नहीं आ सकता कि किसी व्यक्ति के रस अगर फूल कभी कहता नहीं कि आओ, तोड़ो। फूल बुलाता नहीं, फूल | | भीतर सिकुड़ गए हों, तो बाहर के विषयों से कोई भी सेतु नहीं निमंत्रण नहीं देता, मैं ही जाता हूं।
बनता। सेतु बनाने वाला ही खो गया है। तब न कोई भागना है, न रस! कीमती क्या है, विषय या रस? अगर विषय कीमती है, तो कोई चाहना है। तपश्चर्या बहुत मैटीरियल होगी, शारीरिक होगी, फिजिकल होगी। इसलिए कृष्ण के जीवन में अदभुत घटनाएं घटती हैं। जिस
और अगर रस, तो फिर तपश्चर्या मनोवैज्ञानिक होगी; फिर | वृंदावन में वे नाचे हैं, उस वृंदावन को जब छोड़कर चले गए हैं, तपश्चर्या आंतरिक होगी। और मैंने जैसा कहा कि कृष्ण गहरे | तो लौटकर भी नहीं देखा है। वासनाग्रस्त चित्त होता, तो छोड़कर मनोवैज्ञानिक हैं, इसलिए साधक के इस मामले में भी वह जो जाना बहुत मुश्किल पड़ता। वासनाग्रस्त चित्त होता, तो स्मृतियां फिजिकल, वह जो भौतिक साधक है, उसकी गहरी व्यंगना और बड़ी पीड़ा देतीं। वासनाग्रस्त चित्त होता, तो लौट-लौटकर वृंदावन गहरी मजाक कर रहे हैं। वे यह कह रहे हैं कि उसके विषय छूट मन को घेरता, सपनों में आता। जाते हैं, रस नहीं छूटता। और देहाभिमानी कहकर जितनी कड़ी नहीं, वृंदावन जैसे था ही नहीं गया। जैसे पृथ्वी के नक्शे पर आलोचना हो सकती है, उतनी उन्होंने कर दी है। देहाभिमानी | अब नहीं है। जिन्होंने वृंदावन में उनके आस-पास नृत्य करके तपस्वी! अब देहाभिमानी और तपस्वी कहते हैं।
उनको प्रेम किया था, उनकी पीड़ा का अंत नहीं है। वहां रस भी रहा नहीं, देह को मानने वाला तपस्वी...। उसको भी तपस्वी कह रहे | | होगा। इसलिए उनका मन तो वृंदावन और द्वारिका के बीच ब्रिज हैं, क्योंकि तपश्चर्या तो बहुत करता है—व्यर्थ करता है, करता बनाने की चेष्टा में लगा ही है, सेतु बनाना ही चाहता है। लेकिन बहुत है। असफल होता है, चेष्टा बहुत करता है। श्रम में कमी नहीं | कृष्ण को? कृष्ण को जैसे कोई बात ही नहीं है, सब समाप्त हो है, दिशा गलत है। रस भीतर रह जाएंगे। और अगर सारे विषय गया। जहां थे, वहां थे। जहां नहीं हैं, वहां नहीं हैं। वृंदावन नहीं है। बाहर से छोड़ दिए जाएं और सारे रस भीतर रह जाएं, तो इससे सिर्फ | वह नक्शे से गिर गया। रस न हो भीतर, तो ही यह संभव है। रस । साइकोसिस, विक्षिप्तता पैदा होती है, विमक्तता पैदा नहीं होती। | भीतर हो, तो यह कतई संभव नहीं है।
समाधिस्थ व्यक्ति के विषय नहीं, रस छूट जाते हैं। और जिस खूबी है यह कि जितना रस, वासना से भरा हुआ व्यक्ति हो, दिन रस छूटते हैं, उस दिन विषय विषय नहीं रह जाते। क्योंकि वे उतना विषय के निकट होने पर पीड़ित नहीं होता, जितना दूर होने विषय इसीलिए मालूम पड़ते थे कि रस उनको विषय बनाते थे। पर पीड़ित होता है। जिसे हम चाहते हैं, वह पास रहे, तो उसकी जिस दिन रस छूट जाते हैं, उस दिन विषय वस्तुएं रह जाते हैं, | याद नहीं आती है। जिसे हम चाहते हैं, वह दूर हो, तभी उसकी याद विषय नहीं-थिंग्स। क्योंकि उनसे अब कोई रस का संबंध नहीं | | आती है। जिसे हम चाहते हैं, वह पास हो, तब तो भूलना बहुत रह जाता।
आसान है। जिसे हम चाहते हैं, जब वह पास न हो, तब भूलना समाधिस्थ व्यक्ति रसों के विसर्जन में उत्सुक है, विषयों के | बहुत कठिन है। त्याग में नहीं। त्याग हो जाता है, यह दूसरी बात है। लेकिन असली | | लेकिन कृष्ण उलटे हैं। जो पास है, उसे वे परी तरह याद रखते सवाल आंतरिक रसों के विसर्जन का है। इसलिए यह लक्षण भी वे | | हैं। हम, जो पास है, उसे बिलकुल भूल जाते हैं; जो दूर है, उसे गिनाते हैं कि समाधिस्थ व्यक्ति रसों से मुक्त हो जाता है, विषयों | पूरी तरह याद रखते हैं। कृष्ण, जो पास है, उसे पूरी तरह याद रखते की उसे जरा भी चिंता नहीं है।
| हैं। वह उनकी चेतना में पूरा का पूरा है। उसी से तो भ्रम पैदा होता यह ध्यान में ले लेना जरूरी है, क्योंकि यही कृष्ण के ऊपर बड़े | है। उसी से तो प्रत्येक को लगता है कि इतनी अटेंशन मुझे दी, इतना से बड़ा आक्षेप रहा है। क्योंकि कृष्ण को आम्र-कुंजों में नाचते | ध्यान मेरी तरफ दिया; फिर मुझे इस तरह भूल गए, तो बड़ी देखकर बड़ी कठिनाई पड़ेगी देहाभिमानी तपस्वी को, कि यह क्या | | गैर-वफादारी है। हो रहा है। उसकी पीड़ा का अंत न रहेगा। उसका वश चले तो वह उसे पता नहीं है कि कृष्ण जहां हैं, वहीं उनका पूरा ध्यान है। वे
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