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गीता दर्शन भाग-1-m
बुद्ध ने कहा, जो अंतर-कंपन हैं, वे पता चलते ही रुक जाते हैं। | | तपस्वी भी मानता है कि जो करूंगा वह शरीर से। भोगी भी मानता अंतर-कंपन जो हैं, वे पता चलते ही रुक जाते हैं।
है कि शरीर ही द्वार है सुख का, त्यागी भी मानता है कि शरीर ही तो भीतर की इंद्रियों को सिकोड़ना नहीं पड़ता, सिर्फ इसका पता द्वार है सुख का। सुख की धारणाएं उनकी अलग हैं। भोगी शरीर चलना कि भीतर इंद्रिय है और गति कर रही है, इसका बोध ही | से ही विषयों तक पहुंचने की कोशिश करता है, त्यागी शरीर से ही उनका सिकुड़ना हो जाता है—दि वेरी अवेयरनेस। जैसे ही पता विषयों से छूटने की कोशिश करता है। लेकिन शरीर ओरिएंटेशन चला कि यह भीतर काम की वासना उठी, कुछ करें मत, सिर्फ | है, शरीर ही आधार है दोनों का। और दोनों बड़े देहाभिमानी हैं, देखें। आंख बंद कर लें और देखें, यह भीतर काम की वासना उठी। | बाडी-सेंट्रिक हैं, शरीर-केंद्रित हैं। दोनों की दृष्टि शारीरिक है। यह काम की वासना चली जननेंद्रिय के केंद्रों की तरफ सिर्फ इस तथ्य को पहले समझें, फिर दूसरा हिस्सा खयाल में लाया देखें। दो सेकेंड से ज्यादा नहीं, और आप अचानक पाएंगे, सिकुड़ | जा सकता है। दोनों की स्थिति शारीरिक है। एक आदमी सोचता गई। यह क्रोध उठा, चला यह बाहर की इंद्रियों को पकड़ने। सिर्फ | है, शरीर से इंद्रियों को तृप्त कर लें। सारा जगत सोचता है। देखें; आंख बंद कर लें और देखें; और आप पाएंगे, वापस लौट - मुझसे कोई पूछता था कि चार्वाक का कोई संप्रदाय क्यों न बना? गया। यह किसी को देखने की इच्छा जगी और आंख तड़पी। देखें, उसके शास्त्र क्यों न बचे? उसके मंदिर क्यों न निर्मित हुए? उसका चली भीतर की इंद्रिय बाहर की इंद्रिय को पकड़ने। देखें-सिर्फ कोई पंथ, उसका कोई संप्रदाय क्यों नहीं है? देखें और आप पाएंगे कि वापस लौट गई।
तो मैंने उस आदमी को कहा कि शायद तुम सोचते हो कि उसके भीतर की इंद्रियां इतनी संकोचशील हैं कि जरा-सी भी चेतना पास अनुयायी कम हैं इसलिए, तो गलत सोचते हो। असल में नहीं सह पातीं। उनके लिए अचेतना जरूरी माध्यम है-मूर्छा। संप्रदाय सिर्फ माइनर ग्रुप्स के बनते हैं; मेजर ग्रुप का संप्रदाय नहीं इसलिए जो अपने भीतर की इंद्रियों के प्रति जागने लगता है, उसकी बनता। जो अल्पमतीय होते हैं, उनका संप्रदाय बनता है; जो भीतर की इंद्रियां सिकुड़ने लगती हैं, अपने आप सिकुड़ने लगती | बहुमतीय होते हैं, वे बिना संप्रदाय के जीते हैं। बहुमत को संप्रदाय हैं। बाहर की इंद्रियां बाहर पड़ी रह जाती हैं, भीतर की इंद्रियां बनाने की जरूरत नहीं होती। बहुमत को संप्रदाय बनाने की क्या सिकड़कर अंदर चली जाती हैं। ऐसी स्थिति व्यक्ति की समाधिस्थ | जरूरत है? अल्पमत संप्रदाय बनाता है। करोड़ आदमी हैं, दस स्थिति बन जाती है।
आदमी एक मत के होंगे, तो संप्रदाय बनाएंगे, बाकी क्यों बनाएंगे? | चार्वाक का संप्रदाय इसीलिए नहीं बना कि सारी पृथ्वी चार्वाक की
है। सब चार्वाक हैं, नाम कुछ भी रखे हों। विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
इसलिए चार्वाक शब्द बड़ा अच्छा है, वह बना है चारु-वाक रसवर्ज रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ।। ५९।। से, जो वचन सभी को प्रिय लगते हैं। चार्वाक का मतलब, जो बातें
यद्यपि इंद्रियों द्वारा विषयों को न ग्रहण करने वाले सभी को प्रीतिकर हैं। चार्वाक का एक दूसरा नाम है, लोकायत। देहाभिमानी तपस्वी पुरुष के भी विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, | लोकायत का मतलब है, लोक को मान्य, जो सबको मान्य है। बड़ी परंतु रस निवृत्त नहीं होता। परंतु इस पुरुष का रस भी अजीब बात है। जो सबको मान्य है, ऐसा विचार लोकायत है। जो परमात्मा को साक्षात करके निवृत्त हो जाता है। सबको प्रीतिकर है, मधुर है, ऐसा विचार चार्वाक है। नहीं, कोई
मंदिर नहीं, कोई संप्रदाय नहीं बना, क्योंकि सभी उसके साथ हैं।
क्या, चार्वाक कहता क्या है? वह कहता यह है कि सब सुख - हाभिमानी तपस्वी के...।
ऐंद्रिक हैं। इंद्रिय के अतिरिक्त कोई सुख नहीं है। सुख यानी ऐंद्रिक " तपस्वी और देहाभिमानी? असल में देहाभिमान दो| | | होना। सुख चाहिए तो इंद्रिय से ही मिलेगा। हां, वह कहता है, यह
तरह का हो सकता है—भोगी का, तपस्वी का। बात सच है कि दुख भी इंद्रिय से मिलते हैं। यह बिलकुल ठीक ही लेकिन दोनों की स्थिति देहाभिमान की है, बाडी ओरिएंटेशन की है, जहां से सुख मिलेगा, वहीं से दुख भी मिलेगा। लेकिन वह है। क्योंकि भोगी भी मानता है कि जो करूंगा वह शरीर से, और कहता है, कोई भी पागल भूसे के कारण गेहूं को नहीं फेंक देता।
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