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- मरणधर्मा शरीर और अमृत, अरूप आत्मा -
घर की और मैं तो घर का मालिक हूं, बहुत अलग! | तो ज्यादा से ज्यादा चुनौती मिल सकती है। लौटकर घर प्रयोग करने
शरीर को भीतर से जानना पड़े, फ्राम दि इंटीरियर। हम अपने | लग जाना। लौटकर भी क्यों, यहां से चलते वक्त ही रास्ते पर जरा शरीर को बाहर से जानते हैं। जैसे कोई आदमी अपने घर को बाहर | | देखना कि यह जो चल रहा है शरीर, इसके भीतर कोई अचल भी से जानता हो। हमने कभी शरीर को भीतर से फील नहीं किया है; | है? और चलते-चलते भी भीतर अचल का अनुभव होना शुरू हो बाहर से ही जानते हैं। यह हाथ हम देखते हैं, तो यह हम बाहर से | जाएगा। यह जो श्वास चल रही है, यही मैं हूं या श्वासों को भी ही देखते हैं। वैसे ही जैसे आप मेरे हाथ को देख रहे हैं बाहर से, | | देखने वाला पीछे कोई है? तब श्वास भी दिखाई पड़ने लगेगी कि ऐसे ही मैं भी अपने हाथ को बाहर से जानता हूं। हम सिर्फ फ्राम यह रही। और जिसको दिखाई पड़ रही है, वह श्वास नहीं हो दि विदाउट, बाहर से ही परिचित हैं अपने शरीर से। हम अपने सकता, क्योंकि श्वास को श्वास दिखाई नहीं पड़ सकती। शरीर को भी भीतर से नहीं जानते। फर्क है दोनों बातों में। घर के तब विचारों को जरा भीतर देखने लगना, कि ये जो विचार चल बाहर से खड़े होकर देखें तो बाहर की दीवार दिखाई पड़ती है, घर रहे हैं मस्तिष्क में, यही मैं हूं? तब पता चलेगा कि जिसको विचार के भीतर से खड़े होकर देखें तो घर का इंटीरियर, भीतर की दीवार | | दिखाई पड़ रहे हैं, वह विचार कैसे हो सकता है! कोई एक विचार दिखाई पड़ती है।
दूसरे विचार को देखने में समर्थ नहीं है। किसी एक विचार ने दूसरे इस शरीर को जब तक बाहर से देखेंगे, तब तक जीर्ण वस्त्रों की | विचार को कभी देखा नहीं है। जो देख रहा है साक्षी, वह अलग तरह, वस्त्रों की तरह यह शरीर दिखाई नहीं पड़ सकता है। इसे | | है। और जब शरीर, विचार, श्वास, चलना, खाना, भूख-प्यास, भीतर से देखें, इसे आंख बंद करके भीतर से एहसास करें कि शरीर सुख-दुख अलग मालूम पड़ने लगें, तब पता चलेगा कि कृष्ण जो भीतर से कैसा है? इनर लाइनिंग कैसी है? कोट के भीतर की कह रहे हैं कि जीर्ण वस्त्रों की तरह यह शरीर छोडा जाता है. नए सिलाई कैसी है? बाहर से तो ठीक है, भीतर से कैसी है? इसकी वस्त्रों की तरह लिया जाता है, उसका क्या अर्थ है। और अगर यह भीतर की रेखाओं को पकड़ने की कोशिश करें। और जैसे-जैसे दिखाई पड़ जाए, तो फिर कैसा दुख, कैसा सुख? मरने में फिर साफ होने लगेगा, वैसे-वैसे लगेगा कि जैसे एक दीया जल रहा है मृत्यु नहीं, जन्म में फिर जन्म नहीं। जो था वह है, सिर्फ वस्त्र बदले
और उसके चारों तरफ एक कांच है। अब तक कांच से ही हमने | जा रहे हैं। देखा था, तो कांच ही मालूम पड़ता था कि ज्योति है। जब भीतर से देखा तो पता चला कि ज्योति अलग है, कांच तो केवल बाहरी आवरण है।
प्रश्न : भगवान श्री, आत्मा व्यापक है, पूर्ण है, तो पूर्ण और एक बार एक क्षण को भी यह एहसास हो जाए कि ज्योति से पूर्ण कहां जाता है? आत्मा एक शरीर से छूटकर अलग है और शरीर बाहरी आवरण है, तो फिर सब मृत्यु वस्त्रों का दूसरे कौन शरीर में जाता है? कहां से शरीर में आता बदलना है, फिर सब जन्म नए वस्त्रों का ग्रहण है, फिर सब मृत्यु भी है? आत्मा का उदर-प्रवेश हो, उससे पहले गर्भ पुराने वस्त्रों का छोड़ना है। तब जीर्ण वस्त्रों की तरह यह शरीर छोड़ा जीता भी कैसे है? जाता है, नए वस्त्रों की तरह लिया जाता है। और आत्मा अपनी अनंत यात्रा पर अनंत वस्त्रों को ग्रहण करती और छोड़ती है। तब जन्म और मृत्यु, जन्म और मृत्यु नहीं हैं, केवल वस्त्रों का परिवर्तन TT त्मा न तो आता है, न जाता है। आने-जाने की सारी है। तब सुख और दुख का कारण नहीं है।
11 बात शरीर की है। मोटे हिसाब से दो शरीर समझ लें। लेकिन यह जो कृष्ण कहते हैं, यह गीता से समझ में न आएगा;
एक शरीर तो जो हमें दिखाई पड़ रहा है। यह शरीर यह अपने भीतर समझना पड़ेगा। धर्म के लिए प्रत्येक व्यक्ति को |
माता-पिता से मिलता है. जन्मता है। और इसके पास अपनी सीमा स्वयं ही प्रयोगशाला बन जाना पड़ता है। यह कृष्ण जो कह रहे हैं, | है, अपनी सामर्थ्य है; उतने दिन चलता है और समाप्त हो जाता है। इसको पढ़कर मत समझना कि आप समझ लेंगे। मैं जो समझा रहा | | यंत्र है। माता-पिता से सिर्फ यंत्र मिलता है। गर्भ में माता-पिता हूं, उसे समझकर समझ लेंगे, इस भ्रांति में मत पड़ जाना। इससे | | सिर्फ यंत्र की सिचुएशन, स्थिति पैदा करते हैं। यह शरीर जो हमें
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