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- गीता दर्शन भाग-1-4m
तो ये जन्म और मृत्यु...जन्म भी, लोग हमसे कहते हैं कि | | जगह बनानी पड़ती है। आदमी के लिए कोई जगह नहीं बनाता; आपका हआ। वह भी कथन है। मत्य भी हम देखते हैं कि होती है, जैसा दिखाई पड़ता है. उसके लिए जगह बनानी पडती है। वह अनुमान है। जन्म किसी ने बताया, मृत्यु का अनुमान हमने __पर जैसे ही पास आया और जैसे ही उसने ऊपर आंख उठाई, तो किया है। लेकिन न हमें जन्म का कोई पता है, न हमें मृत्यु का कोई | देखा कि एक कीमती चश्मा लगाए हुए है। उसने कहा कि जाओ, पता है। तो ये जन्म और मृत्यु होते हैं, ये बड़े इमिटेटिव कनक्लूजंस | नंबर एक; चपरासी को कहा कि नंबर एक। चपरासी भीतर भागा हैं; ये नकल से ली गई निष्पत्तियां हैं।
गया। वह बूढ़ा पास आकर खड़ा हुआ। जब उसने सिर ऊंचा सांख्य कहता है कि काश। तम एक बार जन्म लो जानते हए। किया-झकी है कमर उसकी-तो देखा. गले ने में सोने की चेन है। काश! तुम एक बार मरो जानते हुए। फिर तुम दुबारा न कहोगे कि | तब तक मोढ़ा लिए चपरासी आता था। उसने कहा, रुक-रुक! जन्म और मरण होता है। और अभी मृत्यु को तो देर है, और जन्म नंबर दो ला। तब तक उस बूढ़े ने कोट उठाकर घड़ी देखी। तब तक हो चुका, लेकिन जीवित अभी आप हैं। सांख्य कहता है, अगर तुम चपरासी नंबर दो लाता था। मजिस्ट्रेट ने कहा, रुक-रुक...। जीवित रहो जानते हुए, तो भी छुटकारा हो जाएगा। छुटकारे का | ___ उस बूढ़े ने कहा, मैं बूढ़ा आदमी हूं, जो आखिरी नंबर हो, वही मतलब ही इतना है कि वह जो भ्रांति हो रही है, विचार से जो बुला लो। क्योंकि अभी और भी बहुत बातें हैं। तुम्हें शायद पता निष्कर्ष लिया जा रहा है, वह गलत सिद्ध होता है।
नहीं कि सरकार ने मुझे राय बहादुर की पदवी दी है। और तुम्हें तो जो सांख्यबुद्धि को उपलब्ध हो जाते हैं, कृष्ण कहते हैं, | शायद यह भी पता नहीं कि मैं यहां आया ही इसलिए हूं कि कुछ अर्जुन, वे जन्म-मृत्यु से मुक्त हो जाते हैं। ठीक होता कहना कि वे | लाख रुपया सरकार को दान करना चाहता हूं। नंबर आखिरी कुर्सी कहते कि वे जन्म-मृत्यु की गलती से मुक्त हो जाते हैं। परमपद को जो हो, तू बुला ले। बार-बार चपरासी को दिक्कत दे रहे हो। और उपलब्ध होते हैं।
मैं बूढ़ा आदमी हूं। परमपद कहां है? जब भी हम परमपद की बात सोचते हैं, तो हमारे पद जो हैं, वे जमीन से ऊंचे उठते हैं। ऐसा ऊपर उठते तो कहीं ऊपर आकाश में खयाल आता है। क्योंकि पद जो हैं हमारे, जाते हैं सिंहासन। तो उसी सिंहासन के आखिरी छोर पर कहीं वे जमीन से जितने ऊंचे होते जाते हैं, उतने बड़े होते जाते हैं। आकाश में परमपद हमारे खयाल में है, कि परमपद जो है, वह कहीं
पट्टाभि सीतारमैया ने एक संस्मरण लिखा है। लिखा है कि समव्हेअर अप, ऊपर है। मद्रास में एक मजिस्ट्रेट था अंग्रेज। वह अपनी अदालत में एक ही जिस परमपद की कृष्ण बात कर रहे हैं, वह समव्हेअर इनकुर्सी रखता था, खुद के बैठने के लिए। बाकी कुर्सियां थीं, लेकिन ऊपर की बात नहीं है वह; वह कहीं भीतर-उस जगह, जिसके वह बगल के कमरे में रखता था। नंबर डाल रखे थे। क्योंकि वह | और भीतर नहीं जाया जा सकता; उस जगह, जो आंतरिकता का कहता था, आदमी देखकर कुर्सी देनी चाहिए। तो एक नंबर का एक अंत है। जो इनरमोस्ट कोर, वह जो भीतरी से भीतरी जगह है, वह मोढ़ा था छोटा-सा, बिलकुल गरीब आदमी आ जाए—बहुत जो भीतरी से भीतरी मंदिर है चेतना का, वहीं परमपद है। सांख्य गरीब आ जाए, तब तो खड़े-खड़े चल जाए–बाकी थोड़ा, को उपलब्ध व्यक्ति उस परम मंदिर में प्रविष्ट हो जाते हैं। जिसको एकदम गरीब न भी कहा जा सके, उसको नंबर एक का | शेष फिर कल। मोढ़ा। फिर नंबर दो का मोढ़ा, फिर नंबर तीन की कुर्सी, फिर चार की-ऐसे सात नंबर की कुर्सियां थीं।
एक दिन एक आदमी आया-पट्टाभि सीतारमैया ने लिखा है कि एक दिन बड़ी मुश्किल हो गई। एक बड़ा धोखे से भरा आदमी आ गया। आदमी आया तो मजिस्ट्रेट ने देखा उसको, तो सोचा कि खड़े-खड़े चल जाएगा।
सोचना पड़ता है, कौन आदमी आया! आपको भी सोचना पड़ता है, कहां बिठाएं! क्या करें! क्या न करें! आदमी देखकर
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