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m मोह-मुक्ति, आत्म-तृप्ति और प्रज्ञा की थिरता +
पैदा होता है कि सब पता है। पता कुछ भी नहीं है; सिर्फ शब्द पता को बनाता है। वह कहीं भी घर को बना लेगा। वह झाड़ के नीचे हैं। लेकिन बिना शब्दों के काम नहीं चल सकता। राग है तो विराग | बैठेंगे, तो मेरा हो जाएगा। महल होगा, तो मेरा होगा। लंगोटी है। लेकिन तीसरा शब्द कहां से लाएं? और तीसरा शब्द ही सत्य | होगी, तो मेरी हो जाएगी। और मेरे को कोई दिक्कत नहीं आती कि है। वह कहां से लाएं?
बड़ा मकान हो कि छोटा हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मेरे का महावीर कहते हैं, वीतराग। लेकिन उससे भी कोई फर्क नहीं | | आयतन कितना है, इससे मेरे के होने में कोई फर्क नहीं पड़ता। पड़ता। वीतराग का भी मतलब राग के पार हो जाना, बियांड | | मेरा, आयतन पर निर्भर नहीं है। अटैचमेंट होता है। विराग का भी मतलब वही होता है कि राग के । इसे ऐसा समझें, एक आदमी दो लाख रुपए की चोरी करे और बाहर हो जाना। कोई फर्क नहीं पड़ता। हम कोई भी शब्द बनाएंगे. एक आदमी दो पैसे की चोरी करे, तो क्या आप समर वह किसी शब्द के विपरीत होगा। वह तीसरा नहीं होता, वह हमेशा | पैसे की चोरी छोटी चोरी है और दो लाख रुपए की चोरी बड़ी चोरी दूसरा ही होता है। और सत्य तीसरा है। इसलिए दूसरे शब्द को | | है? आयतन बड़ा है, चोरी बराबर है। दो लाख की चोरी उतनी ही कामचलाऊ रूप से उपयोग करते हैं। कृष्ण भी कामचलाऊ उपयोग | | चोरी है, जितनी दो पैसे की चोरी है। क्योंकि चोरी करने में जो भी कर रहे हैं।
| घटना घटती है, वह,दो पैसे में भी घट जाती है, दो लाख में भी घट इसलिए वैराग्य का अर्थ राग की विपरीतता मत समझ लेना। जाती है। चोर तो आदमी हो ही जाता है दो पैसे में उतना ही, जितना वैराग्य का अर्थ है, द्वंद्व के पार, राग और विराग के पार जो हो गया, | दो लाख में। हां, अदालत दो पैसे के चोर को छोटा चोर कहे, दो जिसे न अब कोई चीज आकर्षित करती है, न विकर्षित करती है। लाख के चोर को बड़ा चोर कहे, सजा कम-ज्यादा करे, वह बात क्योंकि विकर्षण आकर्षण का ही शीर्षासन है। क्योंकि विकर्षण | | अलग है। क्योंकि अदालत को चोरी से मतलब नहीं है, दो लाख आकर्षण का ही शीर्षासन है। वह सिर के बल खड़ा हो गया से मतलब है। अदालत क्वांटिटी पर जीती है। आकर्षण है। और मोह की अंध-निशा टे तो। शर्त साफ है। धर्म का क्वांटिटी से. परिमाण से कोई संबंध नहीं। वैराग्य को कौन उपलब्ध होता है? मोह की अंध-निशा टूटे तो, क्वालिटी से संबंध है, गुण से संबंध है। धर्म कहेगा, दो पैसे की मोह की कालिमा बिखरे तो।
| चोरी या दो लाख की चोरी, बराबर चोरी है। इसमें कोई फर्क नहीं। लेकिन हम क्या करते हैं? हम मोह की कालिमा नहीं तोड़ते, | | गणित में होगा फर्क, धर्म में कोई भी फर्क नहीं है। धर्म के लिए मोह के खिलाफ अमोह को साधने लगते हैं। हम मोह की कालिमा | चोरी हो गई। आदमी चोर है। नहीं तोड़ते, मोह के खिलाफ, विरोध में अमोह को साधने लगते | सच तो यह है कि धर्म को और थोड़ा गहरे में उतरें, तो अगर दो हैं। हम कहते हैं. घर में मोह है. तो घर छोड़ दो. जंगल चले जाएं। लाख अ
ख की लेकिन जिस आदमी में मोह था, आदमी में था कि घर में था? | चोरी और चोरी करने के विचार में भी कोई फर्क हो सकता है? धर्म
अगर घर में मोह था, तो आदमी चला जाए तो मोह के बाहर हो के लिए कोई फर्क नहीं है। चोरी की या चोरी करने का विचार जाएगा। अगर घर मोह था। लेकिन घर को कोई भी मोह नहीं है | किया, कोई अंतर नहीं है, बात घटित हो गई। हम जो करते हैं, वह आपसे, मोह आपको है घर से। और आप भाग रहे हैं और घर वहीं भी हमारे जीवन का हिस्सा हो जाता है। जो हम करने की सोचते का वहीं है। आप जहां भी जाएंगे, मोह वहीं पहुंच जाएगा। वह हैं, वह भी हमारे जीवन का हिस्सा हो जाता है। आपके साथ चलेगा, वह आपकी छाया है। फिर आश्रम से मोह हो यह जान सोलिज की जिस किताब का मैंने नाम लिया, जाएगा-मेरा आश्रम। क्या फर्क पड़ता है? मेरा घर, मेरा अरेस्ट्रोस, उसमें उसका एक वचन और है कि आदमी अपने कर्मों आश्रम-क्या फर्क पड़ता है ? मेरा बेटा, मेरा शिष्य - क्या फर्क से ही नहीं बंधता–सिर्फ कर्मों से नहीं बंधता–बल्कि जो उसने पड़ता है? मोह नया इंतजाम कर लेगा, मोह नई गृहस्थी बसा लेगा। करना चाहा और नहीं किया, उससे भी बंध जाता है।
यह बड़ी मजेदार बात है कि गृह का अर्थ घर से नहीं है। गृह का हम सिर्फ चोरी से ही नहीं बंधते-की गई चोरी से नहीं की अर्थ उस मोह से है, जो घर को बसा लेता है, दैट व्हिच बिल्ट्स | | गई चोरी से, सोची गई चोरी से भी उतने ही बंध जाते हैं। की गई दि होम। होम से मतलब नहीं है गृह का; उससे मतलब है, जो घर चोरी से दूसरे को भी पता चलता है, न की गई चोरी से जगत को
जोगी
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