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- मोह-मुक्ति, आत्म-तृप्ति और प्रज्ञा की थिरता -
बाकी को भी यही कह दिया है उसने। उसको अगर जोर से कहिए, | उसके ढांचे के अभाव में भी, एक गहरी आंतरिक व्यवस्था होती है, तो झगड़े के सिवाय कुछ हो नहीं सकता। इसलिए मन में | | एक इनर डिसिप्लिन होती है। ऊपर तो कोई ढांचा नहीं होता। अपने-अपने हर आदमी समझता है। दूसरे से शिष्टाचार की बातें अब जैसे इतना तो कहा ही जा सकता है कि उसका जीवन करता है, मन में सत्य को जानता है, कि सत्य मुझे पता है। सहज-स्फूर्त होता है, स्पांटेनियस होता है। यह भी सूचना हो गई।
अभी जो भी प्रश्न पूछे जा रहे थे कृष्ण से, कृष्ण भी समझते हैं यह भी सूचना हो गई। बुद्ध सुबह कुछ कहते हैं, दोपहर कुछ कहते कि उनमें अर्जुन अभी तक नंबर एक है। इस पूरे बीच उसके नंबर | | हैं, सांझ कुछ कहते हैं। पैटर्न नहीं है, फिर भी पैटर्न है। ढांचा नहीं एक को गिराने की उन्होंने सब तरफ से कोशिश की है। और उसको | | है। सुबह जो कहा था, वही दोपहर नहीं दोहराया। चाहा है कि वह समझे कि स्थिति क्या है! व्यर्थ ही अपने को नंबर बुद्ध जैसे व्यक्ति मरकर नहीं जीते हैं, जीकर ही जीते हैं। सुबह एक न माने। क्योंकि नंबर एक को केवल वही उपलब्ध होता है, | जो कहा था, उसको सिर्फ वही दोहराएगा, जो दोपहर तक मरा हुआ जिसको अपने नंबर एक होने का कोई पता नहीं रह जाता। वह हो | है। जो दोपहर तक जीया है, वह फिर से उत्तर देगा, फिर रिस्पांड जाता है। जिसको पता रहता है, वह कभी नहीं हो पाता। पहली दफे करेगा। उसका उत्तर सदा नया होगा। नए का मतलब यह है कि वह अर्जुन विनम्र हुआ है। अब उसकी हंबल इंक्वायरी शुरू होती है। पुराने उत्तर को दोहराएगा नहीं। आप पूछेगे, फिर उत्तर उसमें अब वह पूछता है कि बताओ कृष्ण! और इस पूछने में बड़ी प्रतिध्वनित होगा। वह जो भी हो! । विनम्रता है।
लेकिन इन तीन अलग-अलग घटनाओं में, इन तीन असंगतियों में, इस इनकंसिस्टेंसी में भी एक भीतरी कंसिस्टेंसी है। सुबह भी
बुद्ध सहज उत्तर देते हैं, दोपहर भी, सांझ भी। सुबह भी देख लेते प्रश्नः भगवान श्री, जैसा कि आपने बताया, | | हैं कि वह आदमी सिर्फ प्रमाण चाह रहा है, दोपहर भी देख लेते हैं स्थितप्रज्ञता एक आंतरिक घटना है। और स्थितप्रज्ञ | कि प्रमाण चाह रहा है, सांझ भी देख लेते हैं कि प्रमाण चाह रहा पुरुष जो जीवन जीता है, वह कोई पैटर्न में तो जीता है। सुबह भी उसे डगमगा देते, दोपहर भी डगमगा देते, सांझ भी नहीं है, कोई निश्चित पैटर्न बनाकर नहीं जीता है। डगमगा देते। जैसे कि बुद्ध के तीनों उत्तर अलग रहे। तो बाहर से | बुद्ध के ऊपर कोई मृत ढांचा नहीं है, लेकिन एक जीवंत धारा भी हम कैसे निश्चित कर पाएं कि वह स्थितप्रज्ञ है? | है। पर उस जीवंत-धारा के संबंध में कुछ इशारे किए जा सकते हैं।
जैसे एक इशारा यही किया जा सकता है कि स्थितप्रज्ञ का जीवन
सहज-स्फूर्त, तत्क्षण-स्फूर्त, स्पांटेनियस है। इसलिए दो स्थितप्रज्ञ क पूछते हैं। जिस व्यक्ति के भीतर जीवन में सत्य की | | के जीवनों को ऊपर से बिलकुल अलग-अलग होते हुए भी, भीतर किरणें फैल जाती हैं, सत्य का सूर्य जगता है, और की एकता को जांचा जा सकता है, पहचाना जा सकता है।
जिसकी आंतरिक चेतना जागृति को, पूर्ण जागृति को | जैसा मैंने पीछे कहा, तो कई मित्रों ने मुझे पूछा कि ऐसा कैसे हो उपलब्ध हो जाती है, उसका जीवन स्पांटेनियस हो जाता है, सहज | | सकता है! मैंने कहा कि महावीर और बुद्ध एक बार एक ही गांव हो जाता है, सहज-स्फूर्त हो जाता है। उसके जीवन में किसी पैटर्न | | में एक ही धर्मशाला में ठहरे। अब एक ही धर्मशाला में दो को, किसी ढांचे को खोजना मुश्किल है। उसके जीवन में कोई | | स्थितप्रज्ञ—ऐसा कम होता है। एक ही बार पृथ्वी पर दो स्थितप्रज्ञ बंधी-बंधाई रेखाएं नहीं होती। उस व्यक्ति का जीवन रेल की | मुश्किल से होते हैं। एक ही धर्मशाला में, एक ही गांव में बहुत पटरियों पर दौड़ता हुआ जीवन नहीं होता; गंगा की तरह भागता | रेयर फिनामिनन, बड़ी अदभुत घटना है। तो मुझसे मित्रों ने पूछा हुआ, स्वतंत्रता से भरा जीवन होता है। वहां कोई रेल की पटरियां | | कि क्या इतने अहंकारी रहे होंगे कि मिले नहीं? नहीं होती बंधी हई, कि जिन पर ही चलता है वैसा व्यक्ति। | हमको ऐसा ही सूझता है एकदम से। क्योंकि हम जब नहीं
लेकिन फिर भी कुछ बातें कही जा सकती हैं। क्योंकि उसके मिलते किसी से, तो सिर्फ अहंकार के कारण नहीं मिलते। और नो-पैटर्न में भी एक बहुत गहरा पैटर्न होता है। उसके न-ढांचे में भी, हमारे पास कोई कारण नहीं होता। क्यों मिलें हम? लेकिन हमको
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