________________
गीता दर्शन भाग-14
भी नहीं है, लेकिन भ्रम है कि पता है।
अर्जुन अभी ऐसे बोलता रहा, इस प्रश्न के पहले तक, जैसे उसे पता है कि क्या ठीक है, क्या गलत है! चाहता था इतना कि कृष्ण और हामी भर दें, गवाह बन जाएं, तो कल वह जगत को कह सके कि मैं ही नहीं भागा था, कृष्ण ने भी कहा था। मैंने ही युद्ध नहीं छोड़ा था, कृष्ण से पूछो ! रिस्पांसिबिलिटी बांटना चाहता था, दायित्व बांटना चाहता था ।
ध्यान रहे, जो दायित्व बांटना चाहता है, उसके भीतर कंपन है। पक्का उसको भी नहीं है, इसीलिए तो दूसरे का सहारा चाहता है। लेकिन यह बताना भी नहीं चाहता कि मुझे पता नहीं है । यह अहंकार भी नहीं छोड़ना चाहता कि मुझे पता नहीं है।
अर्जुन पूरे समय ऐसे बोल रहा है कि जैसे उसे भलीभांति पता है। धर्म क्या है, अधर्म क्या है ! श्रेयस क्या है, अश्रेयस क्या है ! जगत का किससे लाभ होगा, किससे नहीं होगा ! मरेगा कोई, नहीं मरेगा! सब उसे पता है। पता बिलकुल नहीं है; लेकिन अहंकार कहता है, पता है। इसी अहंकार में वह एक टेक कृष्ण की भी लगवा लेना चाहता था। तुम भी बन जाओ उस लंगड़े की बैसाखी, यही वह चाहता था।
कृष्ण जैसे लोग किसी की बैसाखी नहीं बनते। क्योंकि किसी लंगड़े की बैसाखी बनना, उसको लंगड़ा बनाए रखने के लिए व्यवस्था है। कृष्ण जैसे लोग तो सब बैसाखियां छीन लेते हैं। वे लंगड़े को पैर देना चाहते हैं, बैसाखी नहीं देना चाहते। इसलिए कृष्ण ने अभी इस बीच उसकी सब बैसाखियां छीन लीं, जो उसके पास थीं, वे भी ।
अब वह पहली दफा, पहली बार कृष्ण से जिज्ञासा कर रहा है, जिसमें अपने लिए समर्थन नहीं मांग रहा है। अब वह उन्हीं से पूछ रहा है कि समाधिस्थ कौन है कृष्ण ? किसे हम कहते हैं कि उसकी प्रज्ञा ठहर गई? और जब किसी की प्रज्ञा ठहर जाती है, तो उसका आचरण क्या है? और जब किसी के अंतस में ज्योति ठहर जाती है, तो उसके बाहर के आचरण पर क्या परिणाम होते हैं? मुझे उस संबंध में बताएं। अब वह पहली बार हंबल है, पहली बार विनीत है।
और जहां विनय है, वहीं जिज्ञासा है। और जहां विनय है, वहां ज्ञान का द्वार खुलता है। जहां अपने अज्ञान का बोध है, वहीं से मनुष्य ज्ञान की तरफ यात्रा शुरू करता है। इस वचन में कृष्ण ज्ञानी और अर्जुन अज्ञानी, ऐसी अर्जुन की प्रतीति पहली बार स्पष्ट है। इसके पहले अर्जुन भी ज्ञानी है। कृष्ण भी होंगे, नंबर दो के नंबर
एक वह खुद था अब तक। बड़ा कठिन है, दूसरे आदमी को नंबर एक रखना बड़ा कठिन है।
मैंने सुना है, गांधी गोलमेज- कांफ्रेंस के लिए गए लंदन। तो उनका एक भक्त बर्नार्ड शा को मिलने गया । और बर्नार्ड शा को कहा उस भक्त ने कि गांधी जी को आप महात्मा मानते हैं या नहीं?
भक्तों को बड़ी चिंता होती है कि उनके महात्मा को कोई दूसरा महात्मा मानता है कि नहीं! खुद ही संदेह होता है भीतर, इसलिए दूसरे से भी पक्की गारंटी करवाना चाहते हैं। अब बर्नार्ड शा से पूछने जाने की क्या जरूरत है भक्त को ? इसको खुद ही शक रहा होगा । सोचा, चलो, बर्नार्ड शा से पूछ लें। और सोचा होगा यह भी कि शिष्टाचारवश भी कम से कम बर्नार्ड शा कुछ ऐसा तो कह नहीं सकता कि नहीं हैं।
लेकिन बर्नार्ड शा जैसे लोग शिष्टाचार नहीं पालते, सत्याचार पालते हैं। और सत्याचार बड़ी और बात है। और शिष्टाचार तो सब दिखावा है। बर्नार्ड शा ने कहा, महात्मा हैं तुम्हारे गांधी, बिलकुल हैं, लेकिन नंबर दो के हैं। भक्त ने कहा, नंबर दो के ? नंबर एक का महात्मा कौन है ? बर्नार्ड शा ने कहा, मैं ! बर्नार्ड शा ने कहा, मैं झूठ न बोल सकूंगा। मैं अपने से ऊपर किसी को रख ही नहीं सकता हूं। ऐसी मेरी स्पष्ट प्रतीति है ।
भक्त तो बहुत घबड़ा गया कि कैसा अहंकारी आदमी है। लेकिन बर्नार्ड शा बड़ा ईमानदार आदमी है। नंबर एक कोई भी अपने को | रखता है। वह जो कहता है, चरणों की धूल हूं, वह भी नंबर एक ही रखता है अपने को। यह चरणों की धूल वगैरह सब शिष्टाचार है।
बर्नार्ड शा ने कहा, सचाई यह है कि ज्यादा से ज्यादा नंबर दो रख सकता हूं तुम्हारे महात्मा । नंबर एक तो तय ही है। उसकी कोई बात ही मत करो। उसमें कोई शक - शुबहा नहीं है मुझे। मैं नंबर एक हूं।
व्यंग्य कर रहा था गहरा पूरी मनुष्य जाति पर। और कभी-कभी ऐसा होता है कि बहुत बुद्धिमान जो नहीं कह पाते, वह व्यंग्य करने वाले कह जाते हैं।
240
अरबी में एक कहावत है कि परमात्मा जब भी किसी आदमी को | बनाता है, तो दुनिया में धक्का देने के पहले उसके कान में एक | मजाक कर देता है। उससे कह देता है, तुझसे अच्छा आदमी कभी भी नहीं बनाया । बस उस मजाक में सभी आदमी जीते हैं। जिंदगीभर कान में वह गूंजती रहती है परमात्मा की बात कि मुझसे अच्छा कोई भी नहीं! मगर वह दिल में ही रखनी पड़ती है, क्योंकि