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गीता दर्शन भाग-1 -
में इतनी पुलक?
अवेयर। जानें कि एक रास्ता यह और एक रास्ता यह और यह मैं, युद्ध का खतरा हमारी नींद को थोड़ा कम करता है। हम थोड़े | | तीन हैं यहां। यह रही सफलता, यह रही विफलता और यह रहा मैं। जागते हैं। जागने का अपना रस है। इसलिए दस-पंद्रह साल में यह तीसरा मैं जो हूं, इसके प्रति जागें। और जैसे ही इस तीसरे के सोई हुई मनष्यता को एक यद्ध पैदा करना पडता है. क्योंकि और प्रति जागेंगे. जैसे ही यह थर्ड फोर्स, यह तीसरा तत्व नजर में कोई रास्ता नहीं है। और किसी तरह जागने का उपाय नहीं है। और | | आएगा, कि न तो मैं सफलता हूं, न मैं विफलता हूं। विफलता भी जब युद्ध पैदा हो जाता है, तो रौनक छा जाती है। जिंदगी में रस, | मुझ पर आती है, सफलता भी मुझ पर आती है। सफलता भी चली पुलक और गति आ जाती है।
जाती है, विफलता भी चली जाती है। सुबह होती है, सूरज खिलता युद्ध के इस क्षण में कृष्ण बेहोशी की बात तो कह ही नहीं सकते है, रोशनी फैलती है। मैं रोशनी में खड़ा हो जाता हूं। फिर सांझ हैं, वह वर्जित है; उसका कोई सवाल ही नहीं उठता है। फिर कृष्ण होती, अंधेरा आता है, फिर अंधेरा मेरे ऊपर छा जाता है। लेकिन जिस समता की बात कर रहे हैं, जिस योग की, वह क्या है? वह न तो मैं प्रकाश हूं, न मैं अंधेरा हूं। न तो मैं दिन हूं, न मैं रात हूं। है, दो के बीच, द्वंद्व के बीच निद्वंद्व, अचुनाव, च्वाइसलेसनेस। | क्योंकि दिन भी मुझ पर आकर निकल जाता है और फिर भी मैं होता कैसे होगा यह? अगर आपने द्वंद्व के बीच निद्वंद्व होना भी चुना, तो | हूं। रात भी मुझ पर होकर निकल जाती है, फिर भी मैं होता हूं। वह भी चुनाव है।
| निश्चित ही, रात और दिन से मैं अलग हूं, पृथक हूं, अन्य हूं। इसे समझ लें। यह जरा थोड़ा कठिन पड़ेगा।
यह बोध कि मैं भिन्न हूं द्वंद्व से, द्वंद्व को तत्काल गिरा देता है अगर आपने दो द्वंद्व के बीच निद्वंद्व होने को चुना, तो दैट टू इज़ और निर्द्वद्व फूल खिल जाता है। वह समता का फूल योग है। और ए च्वाइस, वह भी एक चुनाव है। निद्वंद्व आप नहीं हो सकते। अब जो समता को उपलब्ध हो जाता है, उसे कुछ भी और उपलब्ध करने
आप नए द्वंद्व में जुड़ रहे हैं-द्वंद्व में रहना कि निद्वंद्व रहना। अब | को बाकी नहीं बचता है। यह द्वंद्व है, अब यह काफ्लिक्ट है। अगर आप इसका चुनाव करते | इसलिए कृष्ण कहते हैं, अर्जुन, तू समत्व को उपलब्ध हो। हैं कि निद्वंद्व रहेंगे हम, हम द्वंद्व में नहीं पड़ते, तो यह फिर चुनाव | छोड़ फिक्र सिद्धि की, असिद्धि की; सफलता, असफलता की;
।। अब जरा बारीक और नाजुक बात हो गई। लेकिन निर्बुद्व हिंसा-अहिंसा की; धर्म की, अधर्म की; क्या होगा, क्या नहीं को कोई चुन ही नहीं सकता। निद्वंद्व अचुनाव में खिलता है; वह | होगा; ईदर आर छोड़! तू अपने में खड़ा हो। तू जाग। तू जागकर आपका चुनाव नहीं है। अचुनाव में निर्द्वद्व का फूल खिलता है; | | द्वंद्व को देख। तू समता में प्रवेश कर। क्योंकि समता ही योग है। आप चुन नहीं सकते। तो आपको द्वंद्व और निद्वंद्व में नहीं चुनना है।
गीता के इस सूत्र को पढ़कर अनेक लोग मेरे पास आकर कहते हैं कि हम कैसे समतावान हों? यानी मतलब, हम समता को कैसे
दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय। चुनें? कृष्ण तो कहते हैं कि समता योग है, तो हम समता को कैसे बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः । । ४९ ।। पा लें? .
इस समत्व रूप बुद्धियोग से सकाम कर्म अत्यंत तुच्छ है, वे समता को चुनने की तैयारी दिखला रहे हैं। कृष्ण कहते हैं, इसलिए हे धनंजय, समत्वबुद्धियोग का आश्रय ग्रहण कर, चुना कि समता खोई। फिर तुमने द्वंद्व बनाया–असमता और क्योंकि फल की वासना वाले अत्यंत दीन हैं। समता का द्वंद्व बना लिया। असमता छोड़नी है, समता चुननी है! इससे क्या फर्क पड़ता है कि तुम द्वंद्व का पेयर कैसा बनाते हो? बादशाह और गुलाम का बनाते हो, कि बेगम और बादशाह का कष्ण कहते हैं, धनंजय, बुद्धियोग को खोजो। मैंने जो बनाते हो—इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आप द्वंद्व बनाए बिना रह अभी कहा, द्वंद्व को छोड़ो, स्वयं को खोजो; उसी को नहीं सकते। और जो द्वंद्व बनाता है, वह समता को उपलब्ध नहीं ८ कृष्ण कहते हैं, बुद्धि को खोजो। क्योंकि स्वयं का जो होता है। फिर कैसे? क्या है रास्ता?
पहला परिचय है, वह बुद्धि है। स्वयं का जो पहला परिचय है। रास्ता एक ही है कि द्वंद्व के प्रति जागें; कुछ करें मत, जस्ट बी अपने से परिचित होने चलेंगे, तो द्वार पर ही जिससे परिचय होगा,
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