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1 जीवन की परम धन्यता - स्वधर्म की पूर्णता में
अथ चेत्त्वमिमं धर्म्य संग्रामं न करिष्यसि । ततः स्वधर्म कीर्ति च हित्वा पापमवाप्स्यसि ।। ३३ ।। अकीर्ति चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् । संभावितस्य चाकीर्तिर्मरणादतिरिच्यते ।। ३४ ।। और यदि तू इस धर्मयुक्त संग्राम को नहीं करेगा, तो स्वधर्म को और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा। और सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति को भी कथन करेंगे और वह अपकीर्ति माननीय पुरुष के लिए मरण से भी अधिक बुरी होती है।
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भय क्षत्रिय की आत्मा है, फियरलेसनेस । कैसा भी भय न पकड़े उसके मन को, कैसे भी भय के झंझावात उसे कंपाएं न। कैसा भी भय हो, मृत्यु का ही सही, तो उसके भीतर हलन चलन न हो। एक छोटी-सी कहानी आपसे कहूं, उससे खयाल आ सकेगा।
. सुना है मैंने कि चीन में एक बहुत बड़ा धनुर्धर हुआ । उसने जाकर सम्राट को कहा कि अब मुझे जीतने वाला कोई भी नहीं है। तो मैं घोषणा करना चाहता हूं राज्य में कि कोई प्रतियोगिता करता हो, तो मैं तैयार हूं। और अगर कोई प्रतियोगी न निकले – या कोई | प्रतियोगी निकले, तो मैं स्पर्धा के लिए आ गया हूं। और मैं यह चाहता हूं कि अगर कोई प्रतियोगी न निकले या प्रतियोगी हार जाए,
मुझे पूरे देश का श्रेष्ठतम धनुर्धर स्वीकार किया जाए। सम्राट ने कहा, इसके पहले कि तुम मुझसे कुछ बात करो, मेरा जो पहरेदार है, उससे मिल लो। पहरेदार ने कहा कि धनुर्धर तुम बड़े हो, लेकिन एक व्यक्ति को मैं जानता हूं, कुछ दिन उसके पास रह आओ। कहीं ऐसा न हो कि नाहक अपयश मिले।
उस व्यक्ति की खोज करता हुआ वह धनुर्धर जंगल पहुंचा। जब उस व्यक्ति के पास उसने देखा और रहा, तो पता चला कि वह तो कुछ भी नहीं जानता था।
तीन वर्ष उसके पास सीखा। सब सीख गया। तब उसके मन में हुआ कि अब तो मैं सब सीख गया, लेकिन फिर भी अब मैं किस मुंह से राजा के पास जाऊं, क्योंकि मेरा गुरु तो कम से कम मुझसे ज्यादा जानता ही है। नहीं ज्यादा, तो मेरे बराबर जानता ही है। तो अच्छा यह हो कि मैं गुरु की हत्या करके चला जाऊं ।
अक्सर गुरुओं की हत्या शिष्य ही करते हैं- अक्सर। यह
| बिलकुल स्वाभाविक नियम से चलता है।
तो गुरु सुबह-सुबह लकड़ियां बीनने गया है जंगल में; वह एक वृक्ष की ओट में खड़ा हो गया । धनुर्धर है, दूर से उसने तीर मारा, गुरु लकड़ियां लिए चला आ रहा है। लेकिन अचानक सब उलटा हो गया। वह तीर पहुंचा, उस गुरु ने देखा, एक लकड़ी सिर के बंडल से निकालकर उस तीर को मारी । वह तीर उलटा लौटा और जाकर उस युवक की छाती में छिद गया।
गुरु ने आकर तीर निकाला और कहा कि इतना भर मैंने बचा रखा था। शिष्यों से गुरु को थोड़ा-सा बचा रखना पड़ता है। लेकिन तुम नाहक ... । मुझसे कह देते। मैं गांव आऊंगा नहीं। और शिष्य से प्रतियोगिता करने आऊंगा? पागल हुए हो? तुम जाओ, घोषणा करो, तुम मुझे मरा हुआ समझो। तुम्हारे निमित्त अब किसी को सिखाऊंगा भी नहीं । और मेरे आने कोई बात ही नहीं; तुमसे प्रतियोगिता करूंगा! जाओ, लेकिन जाने के पहले ध्यान रखना कि | मेरा गुरु अभी जिंदा है। और मैं कुछ भी नहीं जानता। उसके पास दस-पांच साल रहकर जो थोड़े-बहुत कंकड़-पत्थर बीन लिए थे, वही । इसलिए उसके दर्शन एक बार कर लो।
बड़ा घबड़ाया वह आदमी। महत्वाकांक्षी के लिए धैर्य बिलकुल नहीं होता। तीन साल इसके साथ खराब हुए। लेकिन अब बिना उस आदमी को देखे जा भी नहीं सकता। तो गया पहाड़ों में खोजता हुआ, और ऊंचे शिखर पर। उसके गुरु ने कहा था कि मेरा बूढ़ा गुरु है, कमर उसकी झुक गई है, तुम पहचान लोगे। जब वह उसके पास पहुंचा, तो उसने जाकर देखा कि एक अत्यंत वृद्ध आदमी, सौ के ऊपर पार हो गया होगा, कमर झुक गई है, बिलकुल गोल हो गया है । सोचा कि यह आदमी!
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उसने कहा कि क्या आप ही वे धनुर्धर हैं, जिनके पास मुझे भेजा गया है? तो उस बूढ़े ने आंखें उठाईं, उसकी पलकों के बाल भी बहुत बड़े हो गए थे, बामुश्किल आंखें खोलकर उसने देखा और कहा, हां, ठीक है । कैसे आए हो ? क्या चाहते हो ? उसने कहा, मैं भी एक धनुर्धर हूं।
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तो वह बूढ़ा हंसने लगा। उसने कहा, अभी धनुष-बाण साथ लिए हो ! कैसे धनुर्धर हो ? क्योंकि जब कोई कला में पूर्ण हो जाता है, तो यह व्यर्थ का बोझ नहीं ढोता है । जब वीणा बजाने में वीणावादक पूर्ण हो जाता है, तो वीणा तोड़ देता है, क्योंकि फिर वीणा पूर्ण संगीत के मार्ग पर बाधा बन जाती है। और जब धनुर्धर पूरा हो जाता है, तो धनुष-बाण किसलिए ? ये तो सिर्फ अभ्यास