________________
30
गीता दर्शन भाग-1-m
राग-द्वेषरहित, यह शून्य-चेतना फलित हो सकती है। | भी नहीं आती है कि किसकी तस्वीर है। कुछ पता भी नहीं चलता
चेतना जब शून्य होती है, तभी शुद्ध होती है। यह शून्य का कृष्ण | कि क्या है। एक नाइटमेयरिश, एक दुख-स्वप्न जैसा चित्त हो का कहना! चेतना जब शून्य होती है, तभी शुद्ध होती है; जब शुद्ध जाता है। होती है, तब शून्य ही होती है।
दर्पण तो फिर भी बेहतर है। एक तस्वीर बनती है, मिट जाती है, करीब-करीब ऐसा समझें कि एक दर्पण है। दर्पण कब शुद्धतम तब दूसरी बनती है। हमारा चित्त ऐसा दर्पण है, जो तस्वीरों को होता है? जब दर्पण में कुछ भी नहीं प्रतिफलित होता, जब दर्पण में पकड़ता ही चला जाता है; इकट्ठा करता चला जाता है; तस्वीरें ही कोई तस्वीर नहीं बनती। जब तक दर्पण में तस्वीर बनती है, तब तस्वीरें रह जाती हैं। तक कुछ फारेन, कुछ विजातीय दर्पण पर छाया रहता है। जब तक उर्दू के किसी कवि की एक पंक्ति है, जिसमें उसने कहा है कि दर्पण पर कोई तस्वीर बनती है, तब तक दर्पण सिर्फ दर्पण नहीं मरने के बाद घर से बस कुछ तस्वीरें ही निकली हैं। मरने के बाद होता, कुछ और भी होता है। एक तस्वीर निकलती है, दूसरी बन | हमारे घर से भी कुछ तस्वीरों के सिवाय निकलने को कुछ और नहीं जाती है। दूसरी निकलती है, तीसरी बन जाती है। दर्पण पर कुछ | है। जिंदगीभर तस्वीरों के संग्रह के अतिरिक्त हमारा कोई और कृत्य बहता रहता है। लेकिन जब कोई तस्वीर नहीं बनती, जब दर्पण नहीं है। सिर्फ दर्पण ही होता है, तब शून्य होता है।
| कृष्ण कहते हैं, शून्य, निद्वंद्व चित्त...। छोड़ो तस्वीरों को, जानो चेतना सिर्फ दर्पण है। जब तक उस पर कोई तस्वीर बनती रहती | दर्पण को। मत करो चुनाव, क्योंकि चुनाव किया कि पकड़ा। है-कभी राग की, कभी विराग की; कभी मित्रता की, कभी शत्रुता | पकड़ो ही मत, नो क्लिगिंग। रह जाओ वही, जो हो। उस शून्य क्षण की; कभी बाएं की, कभी दाएं की-कोई न कोई तस्वीर बनती | में जो जाना जाता है, वही जीवन का परम सत्य है, परम ज्ञान है। रहती है, तो चेतना अशुद्ध होती है। लेकिन अगर कोई तस्वीर नहीं बनती, चेतना द्वंद्व के बाहर, चुनाव के बाहर होती है, तो शून्य हो जाती है। शून्य चेतना में क्या बनता है? जब दर्पण शून्य होता है, | प्रश्नः भगवान श्री, इस श्लोक में यह वार्तिक मिला, तब दर्पण ही रह जाता है। जब चेतना शून्य होती है, तो सिर्फ चैतन्य बहुत यथार्थ है। मगर एक मश्किल पड जाती है कि ही रह जाती है।
त्रैगुण्यविषया वेदा। इसमें गीता सर्व वेद पर आक्षेप वह जो चैतन्य की शून्य प्रतीति है, वही ब्रह्म का अनुभव है। वह करती है कि वे त्रैगुण्य विषय से युक्त हैं! और दूसरा, जो शुद्ध चैतन्य की अनुभूति है, वही मुक्ति का अनुभव है। शून्य उत्तरार्ध में निर्योगक्षेम आत्मवान, तो आत्मवान होना
और ब्रह्म, एक ही अनुभव के दो छोर हैं। इधर शून्य हुए, उधर ब्रह्म | न होना एक आंतरिक भाव है, तो श्रीकृष्ण उसको हुए। इधर दर्पण पर तस्वीरें बननी बंद हुई कि उधर भीतर से ब्रह्म | | योगक्षेम प्रवृत्ति की बाह्य घटना से क्यों जोड़ते हुए का उदय हुआ। ब्रह्म के दर्पण पर तस्वीरों का जमाव ही संसार है। दिखते हैं? मात्र आत्मवान होने से योगक्षेम की
हम असल में दर्पण की तरह व्यवहार ही नहीं करते। हम तो | समस्या हल हो सकेगी? कैमरे की फिल्म की तरह व्यवहार करते हैं। कैमरे की फिल्म प्रतिबिंब को ऐसा पकड़ लेती है कि छोड़ती ही नहीं। फिल्म मिट जाती है, तस्वीर ही हो जाती है।
कष्ण कहते हैं, समस्त वेद सगुण से, तीन गुणों से भरे अगर हम कोई ऐसा कैमरा बना सकें, बना सकते हैं, जिसमें कि | पृ० हैं, निर्गुण नहीं हैं। शब्द निर्गुण नहीं हो सकता; वेद ही एक तस्वीर के ऊपर दूसरी और दूसरी के ऊपर तीसरी ली जा सके। ८ नहीं, कृष्ण का शब्द भी निर्गुण नहीं हो सकता। और एक फिल्म पर अगर हजार तस्वीरें, लाख तस्वीरें ली जा सकें, तो जब वे कहते हैं समस्त वेद, तो उसका मतलब है समस्त शास्त्र, जो स्थिति उस फिल्म की होगी, वैसी स्थिति हमारे चित्त की है। उसका मतलब है समस्त वचन, उसका मतलब है समस्त ज्ञान, जो तस्वीरों पर तस्वीरें, तस्वीरों पर तस्वीरें इकट्ठी हो जाती हैं। कहा गया, वह कभी भी तीन गुणों के बाहर नहीं हो सकता। कनफ्यूजन के सिवाय कुछ नहीं शेष रहता। कोई शकल पहचान में | इसे ऐसा समझें कि जो भी अभिव्यक्त है, वह गुण के बाहर नहीं
206