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गीता दर्शन भाग-1
भयाद्रणादुपतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः । येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् ।। ३५ ।। और जिनके लिए तू बहुत माननीय होकर भी अब तुच्छता को प्राप्त होगा, वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध उपराम हुआ मानेंगे। अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः । निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम् ।। ३६ ।। हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् । तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ।। ३७ ।। तेरे बैरी तेरे सामर्थ्य की निंदा करते हुए बहुत से न कहने योग्य वचनों को कहेंगे। फिर उससे अधिक दुख क्या होगा? इसलिए युद्ध करना तेरे लिए सब प्रकार से अच्छा है। क्योंकि या तो मरकर तू स्वर्ग को प्राप्त होगा, अथवा जीतकर पृथ्वी को भोगेगा। इससे हे अर्जुन, युद्ध के लिए निश्चर्यं वाला होकर खड़ा हो।
कृ
ष्ण की बात यदि यूनान के मनस्वी प्लेटो ने पढ़ी होती, तो सौ प्रतिशत स्वीकृति देता। प्लेटो से किसी ने पूछा, स्वर्ग क्या है? सुख क्या है? तो प्लेटो ने जो सुख की परिभाषा की है, वह समझने जैसी है। प्लेटो ने कहा, अंतस की निजता का बाहर के आचरण से जहां संगीतपूर्ण तालमेल है, वहीं सुख है; जहां अंतस की निजता का बाहर के आचरण से तालमेल है, अविरोध है, वहीं आनंद है। और प्लेटो ने कहा, व्यक्ति जो हो सकता है, जो उसके बीज में छिपा है, जिस दिन वही हो जाता है, उसी दिन स्वर्ग है।
कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं, क्षत्रिय होकर ही तेरा स्वर्ग है। उससे विचलित होकर तेरा कोई सुख नहीं है। तेरी जो निजता है, तेरी जो इंडिविजुअलिटी है, जो तेरे भीतर का गुणधर्म है, जो तू भीतर से
लिए बैठा है, जो तू हो सकता है, वही होकर ही — अन्यथा नहीं - तू स्वर्ग को उपलब्ध होगा, तू सुख को उपलब्ध होगा, तू आनंद को अनुभव कर सकता है।
जीवन का आशीर्वाद, जीवन की प्रफुल्लता स्वयं के भीतर जो भी छिपा है, उसके पूरी तरह प्रकट हो जाने में है। जीवन का बड़े से बड़ा दुख, जीवन का बड़े से बड़ा नर्क एक ही है कि व्यक्ति वह न हो पाए, जो होने के लिए पैदा हुआ है; व्यक्ति वह न हो पाए,
जो हो सकता था और अन्य मार्गों पर भटक जाए। स्वधर्म से भटक जाने के अतिरिक्त और कोई नर्क नहीं है। और स्वधर्म को उपलब्ध हो जाने के अतिरिक्त और कोई स्वर्ग नहीं है ।
कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि इस दिखाई पड़ने वाले लोक में जिसे लोग सुख कहते हैं, वह तो तुझे मिलेगा ही, लेकिन न दिखाई पड़ने वाले लोक में...! इसे भी थोड़ा समझ जरूरी है कि परलोक से हमने जो अर्थ ले रखा है, वह सदा मृत्यु के बाद जो लोक है, उसका ले रखा है। हमने जो व्याख्या कर रखी है अपने मन में इस लोक की और उस लोक की, वह टेंपोरल है, टाइम में है। हमने सोच रखा है कि यह लोक खतम होता है, जहां हमारा जीवन समाप्त होता है, और परलोक शुरू होता है। ऐसा नहीं है।
यह लोक और परलोक साथ ही मौजूद हैं। टेंपोरल नहीं है, समय में उनका विभाजन नहीं है। बाहर जो हमें मिलता है, वह | इहलोक है; भीतर जो हमें मिलता है, वह परलोक है। परलोक-का | केवल मतलब इतना ही है कि इस लोक के जो पार है, इस लोक के जो बियांड है - वह अभी भी है, इस वक्त भी है। जिसको जीसस ने किंगडम आफ गॉड कहा है, प्रभु का राज्य कहा है, उसे ही इस देश ने परलोक कहा है। परलोक का संबंध आपके जीवन के समाप्त होने से नहीं है; परलोक का संबंध आपके दृश्य से में प्रवेश से है। वह आप अभी भी कर सकते हैं, और वह
अदृश्य
आप मृत्यु के बाद भी चाहें तो नहीं कर सकते हैं। चाहें तो मृत्यु के बाद भी इहलोक में ही घूमते रहें - इसी लोक में। और चाहें तो जीते-जी परलोक में प्रवेश कर जाएं।
वह आंतरिक—जहां समय और क्षेत्र मिट जाते हैं, जहां टाइम और स्पेस खो जाते हैं, जहां दृश्य खो जाते हैं और अदृश्य शुरू होता है - वह जो आंतरिकता का, वह जो भीतर का लोक है, वहां भी कृष्ण कहते हैं, स्वर्ग। लेकिन स्वर्ग से आप किसी परियों के | देश की बात मत समझ लेना | स्वर्ग सिर्फ इनर हार्मनी का नाम है, | जहां सब स्वर जीवन के संगीतपूर्ण हैं । और नर्क सिर्फ इनर, आंतरिक विसंगीत का नाम है, जहां सब स्वर एक-दूसरे के विरोध में खड़े हैं।
सार्त्र ने नर्क की परिभाषा में एक वचन कहा है। उसने कहा है कि मनुष्य के मन में नर्क उसी क्षण उत्पन्न हो जाता है, जिस क्षण उसके चित्त में दो बातें खड़ी हो जाती हैं। टु बी, व्हाट वन इज़ नाट; | एंड नाट टु बी, व्हाट वन इज़ - वह होने की इच्छा, जो कि मैं नहीं
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