________________
→ निष्काम कर्म और अखंड मन की कीमिया
ईश्वर का मतलब है, दि क्रिएटर, सृजन करने वाला । ब्रह्म का अर्थ है, शुद्धतम जीवन की ऊर्जा । ईश्वर के पहले भी ब्रह्म है। ईश्वर भी बनते और मिटते हैं, ईश्वर भी आते और जाते हैं। ईश्वर हमारी धारणाएं हैं।
इसे ऐसा समझें कि मैं एक अंधेरी रात में चल रहा हूं। दूर, दो-चार मील दूर कुछ दिखाई पड़ता है । लगता है कि कोई पुलिस वाला खड़ा है। और मीलभर चलकर आता हूं पास, तो दिखाई पड़ता है, पुलिस वाला नहीं है, कोई झाड़ का ठूंठ है। और मीलभर चलकर आता हूं, तो पाता हूं, झाड़ का ठूंठ भी नहीं है, स्वतंत्रता का स्मारक है । जो है, वह वही है । और पता नहीं मीलभर बाद चलकर पता क्या चले! जो है, वह तो वही है। मैं आगे आता जा रहा हूं।
जो लोग ब्रह्म की यात्रा पर निकलते हैं, यात्रा के अंत पर जिसे पाते हैं, वह ब्रह्म है। और यात्रा पास आती जाती है, पास आती जाती है, उस पास आते जाते में जिसे पाते हैं, वह ईश्वर है । ईश्वर ब्रह्म दर से देखा गया कंसेप्शन है, धारणा है। हम सोच ही नहीं सकते ब्रह्म को। जब हम सोचते हैं, तब हम ईश्वर बना लेते हैं। निर्गुण को हम सोच ही नहीं सकते, जब सोचते हैं तो सगुण बना लेते हैं । निराकार को हम सोच नहीं सकते, जब सोचते हैं तो उसे भी आकार दे देते हैं।
ब्रह्म मनुष्य के मन से जब देखा जाता है, तब ईश्वर निर्मित होता है । यह ईश्वर मनुष्य का निर्माण है। जैसे-जैसे आगे जाएगा, विचार छोड़ेगा, छोड़ेगा और निर्विचार होगा, उस दिन पाएगा, ईश्वर भी खो गया। अब जो शेष रह जाता है निराकार, निर्गुण, वही ब्रह्म है।
तो शुद्धतम सूत्र में तो सांख्य राजी नहीं है। क्योंकि सांख्य कहता है, बीच के मुकाम बनाने नहीं हैं। लेकिन सांख्य की भी बाद में एक दूसरी धारा फूटी। निरीश्वर सांख्य तो था ही, लेकिन वह भी हवा में खोने लगा, तो सेश्वर सांख्य भी निर्मित हुआ । कुछ लोगों ने समझौते किए और सांख्य में भी ईश्वर को जोड़ा। और कहा कि काम नहीं चलेगा, क्योंकि आदमी ब्रह्म को पकड़ नहीं पाता, उसके लिए बीच की मंजिलें बनानी पड़ेंगी। और न ही पकड़ पाए, इससे तो अच्छा है कि चार कदम चले और ईश्वर को पकड़े। फिर ईश्वर छुड़ा लेंगे। चलने को ही जो राजी न हो, उसे चार कदम चलाओ। चार कदम चलने के बाद कहेंगे कि यह जो तुम्हें दिखाई पड़ता था, गलत दिखाई पड़ता था, इसे छोड़ो। और चार कदम
चलो। हो सकता है, बीच में कई ईश्वर के मंदिर खड़े करने पढ़ें- इससे पहले कि ब्रह्म का अव्यक्त, ब्रह्म का निराकार मंदिर प्रकट हो ।
पश्चिम में जो सांख्य का प्रभाव है, वह निरीश्वरवादी होने की वजह से नहीं है। पश्चिम में भी जो बुद्धिमान, विचारशील आदमी पैदा हुआ है, वह भी जानता है कि बात तो सिर्फ ज्ञान की ही है, सिर्फ जान लेने की ही है। अगर हमें समझ में न आए, तो वह हमारी मजबूरी है, लेकिन बात केवल जान लेने की है। अगर इकहार्ट से पूछें, या प्लेटिनस से पूछें, या बोहेम से पूछें, तो पश्चिम में भी जो आदमी जानता है, वह कहेगा, बात तो यही है कि सिर्फ जान लेना है, और कुछ भी नहीं करना है। जरा हिले करने के लिए कि चूक हुई। क्योंकि करना बिना हिले न होगा। करेंगे तो हिलना ही पड़ेगा। और वह जो अकंप है, वह हम जरा भी हिले कि खोया ।
उसी की तरह अकंप हो जाना पड़ेगा। जैसे दीए की लौ किसी बंद घर में – जहां हवा के झोंके न आते हों-अकंप जलती है। ऐसे ही अकर्म में व्यक्ति की चेतना अकंप हो जाती है; अकर्म में, नान- एक्शन में अकंप हो जाती है। और जैसे ही व्यक्ति की चेतना अकंप होती है, विराट की चेतना से एक हो जाती है।
पश्चिम में भी प्रभाव सांख्य का है। और मैं मानता हूं कि जैसे-जैसे मनुष्य की बुद्धि और विकसित होगी, सांख्य और भी प्रभावी होता चला जाएगा। भारत में उतना प्रभाव सांख्य का नहीं | है | भारत में प्रभाव योग का है, जो कि बिलकुल ही दूसरी, उलटी बात है। योग कहता है, कुछ करना पड़ेगा । योग मनुष्य की निम्नतम बुद्धि से चलता है। सांख्य मनुष्य की श्रेष्ठतम बुद्धि से
चलता है।
स्वभावतः, जो श्रेष्ठतम से शुरू करेगा, वह आखिर तक नहीं आ पाएगा। और अक्सर ऐसा होता है कि जो आखिरी से शुरू करेगा, वह चाहे तो श्रेष्ठतम तक पहुंच जाए।
सांख्य शुद्धतम ज्ञान है, योग शुद्धतम क्रिया है। और अगर हम सारी दुनिया के चिंतन को दो हिस्सों में बांटना चाहें, तो सांख्य और | योग दो शब्द काफी हैं। जिनका भी करने पर भरोसा है, उनको योग में; और जिनको न करने पर भरोसा है, सिर्फ जानने पर भरोसा है, उनको सांख्य में। असल में जगत में सांख्य और योग के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। बाकी सब इन दो केटेगरी में कहीं न कहीं खड़े होंगे। चाहे दुनिया के किसी कोने में कोई चिंतन पैदा हुआ हो जीवन के प्रति, बस दो ही विभाजन में बांटा जा सकता है।
189