________________
mm
जीवन की परम धन्यता-स्वधर्म की पूर्णता में -
अरूप मौजूद है। जरा रूप की परत में गहरे उतरें। ' लेगा। उसका अपना ग्रेविटेशन है; उससे बड़ा कोई ग्रेविटेशन नहीं कैसे उतरें? क्या करें?
है; उससे बड़ी कोई कशिश नहीं है। वह खींच लेगा। लेकिन हम दूसरे को भूलें। बहुत कठिन है। आंख बंद करें, तो भी दूसरा ही | | दूसरे को पकड़े हैं। वह दूसरे को पकड़े होने की वजह से, दूसरे के याद आता है। आंख बंद करें, तो भी दूसरा ही दिखाई पड़ता है। | साथ हम इतने जोर से चिपके हुए हैं कि वह द्वार ही नहीं खुल पाता, आंख बंद करें, तो भी दूसरे से ही मिलना होता रहता है। दूसरे से | | जहां से अव्यक्त हमें पुकार ले और खींच ले और बुला ले और आब्सेस्ड हैं, दूसरे से रुग्ण हैं। दूसरा है कि पीछा छोड़ता ही नहीं; अपने में डुबा ले। बस, चित्त में घूमता ही चला जाता है। यह जो दूसरे की भीतर भीड़ __और एक बार अव्यक्त में डूबकर लौटे, तो फिर दूसरे में भी वही है, इसे विदा करें।
| दिखाई पड़ेगा, जो स्वयं में दिखाई पड़ा है। क्योंकि दूसरे को हम विदा करने का उपाय है, इस भीड़ के प्रति साक्षी का भाव करें। | वहीं तक जानते हैं, जितना हम स्वयं को जानते हैं। जिस दिन भीतर आंख बंद करके, वे जो दूसरों के प्रतिबिंब हैं, उनके साक्षी आपको अपने भीतर अव्यक्त दिखाई पड़ जाएगा, वह इटरनल भर रह जाएं। देखते रहें, कुछ कहें मत। न पक्ष लें, न विपक्ष लें। एबिस, वह अंतहीन खाई अव्यक्त की अपने भीतर मुंह खोलकर न प्रेम करें, न घृणा करें। न किसी चित्र को कहें कि आओ; न किसी दिखाई पड़ जाएगी, उस दिन प्रत्येक आंख में और प्रत्येक चेहरे में चित्र को कहें कि जाओ। बस बैठे रह जाएं और देखते रहें, देखते वही अव्यक्त दिखाई पड़ना शुरू हो जाएगा। फिर पत्ते में और फूल रहें, देखते रहें। धीरे-धीरे चित्र विदा होने लगते हैं। क्योंकि जिन | | में और आकाश में, सब तरफ उस अव्यक्त की मौजूदगी अनुभव मेहमानों को आतिथेय देखता ही रहे, वे मेहमान ज्यादा देर नहीं | होने लगती है। टिक सकते। मित्रता दिखाए तो भी टिक सकते हैं, शत्रुता दिखाए | लेकिन यात्रा का पहला कदम स्वयं के भीतर है। उपेक्षा या साक्षी तो भी आ सकते हैं। कुछ भी न दिखाए...।
या कोई भी नाम दें, अवेयरनेस, कुछ भी नाम दें-दूसरे के जो तो बुद्ध ने एक सूत्र दिया है, उपेक्षा, इंडिफरेंस। बस, रह जाए, | चित्र भीतर हैं, दूसरे के जो प्रतिबिंब भीतर हैं, उनके प्रति होश से कुछ भी न दिखाए; न पक्ष, न विपक्ष। तो धीरे-धीरे दूसरे के चित्र | भर जाएं और कुछ मत करें, वे गिर जाते हैं। कुछ किया कि वे पकड़ बिखर जाते हैं। विचार खो जाते हैं।
| | जाते हैं। कछ मत करें और अचानक आप पाएंगे कि घटना घट गई और जिस क्षण भी दूसरे के चित्र नहीं होते, उसी क्षण स्वयं के और आप अव्यक्त में उतर गए। होने का बोध पहली दफा उतरता है। जिस क्षण दूसरा आपके भीतर __ कृष्ण उसी अव्यक्त की बात कर रहे हैं। वह पहले भी था, बाद मौजूद नहीं है, उसी क्षण अचानक आपको अपनी प्रेजेंस का, अपने | | में भी है, अभी भी है। सिर्फ व्यक्त से ढंका है। जरा व्यक्त की परत होने का अनुभव होता है; कहीं से कोई झरना फूट पड़ता है जैसे। | के नीचे जाएं और वह प्रकट हो जाता है। जैसे पत्थर रखा था दूसरे का झरने के ऊपर, वह हट गया और झरने की धारा फूट पड़ी। आप पहली दफा अपनी प्रेजेंस को, अपने होने को, अपने अस्तित्व को अनुभव करते हैं और अव्यक्त में यात्रा | प्रश्न: भगवान श्री, हम अगर जीने की इच्छा छोड़ दें, . शुरू हो जाती है। उसके आगे आपको कुछ नहीं करना है। । तो क्या अव्यक्त का सिकुड़ना शुरू होता है? या
जैसे एक आदमी छत से कूद जाए। कूद जाए, तब तो ठीक है। | अव्यक्त का सिकुड़ना शुरू होता है, इसके प्रभाव से कूदने के पहले पूछे कि मैं छत से कूद तो जाऊंगा, लेकिन फिर | हम जीने की इच्छा खो बैठते हैं? प्रश्न यह है कि जमीन तक आने के लिए क्या करूंगा? तो हम कहेंगे, तुम कुछ | आरंभ कहां से होता है? क्या पारस्परिक असर नहीं करना ही मत, बाकी काम जमीन कर लेगी। तुम छत से कूद भर होता? जाना, बाकी काम जमीन पर छोड़ देना। वह बड़ी कुशल है। उसका ग्रेविटेशन है, उसकी अपनी कशिश है, अपना गुरुत्वाकर्षण है, वह तुम्हें खींच लेगी। तुम सिर्फ एक कदम छत से उठा लेना।
वन की इच्छा हम छोड़ दें तो अव्यक्त सिकुड़ना शुरू बस, दूसरे से एक कदम उठा लेना आप, बाकी अव्यक्त खींच UII हो जाता है, या अव्यक्त सिकुड़ना शुरू हो जाता है,