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im+ गीता दर्शन भाग-14
विभाजन हैं। और कृष्ण की पूरी साइकोलाजी, कृष्ण का पूरा का | | स्पष्ट ढांचा दे देना चाहते थे कि आत्माएं, जो चुनाव करती हैं अपने पूरा मनोविज्ञान इस बात पर खड़ा है कि प्रत्येक व्यक्ति को परमात्मा | | नए जन्म के लिए, उनके लिए एकदम सुगम व्यवस्था हो जाए। तक पहुंचने का जो मार्ग है, वह उसके स्वधर्म से गुजरता है। | फिर भी भूल-चूक हो जाती थी। इतने बड़े समाज में बहुत वैज्ञानिक स्वधर्म का मतलब हिंदू नहीं, स्वधर्म का मतलब मुसलमान नहीं, | प्रयोग भी भूल-चूक ले आता है। तो कभी किसी...।
का मतलब जैन नहीं: स्वधर्म का मतलब. उस व्यक्ति का अब एक पिता और एक मां जिनके दोनों के जीवन की खोज जो वर्ण है। और वर्ण का जन्म से कोई संबंध नहीं है। | ज्ञान रही है, निश्चित ही ये जिस गर्भ को निर्मित करेंगे, वह गर्भ
लेकिन संबंध निर्मित हो गया। हो जाने के पीछे बहुत कारण हैं, | किसी ज्ञान की खोजी आत्मा के लिए सुगमतम होगा। इसलिए वह मैं बात करूंगा। हो जाने के पीछे कारण थे, वैज्ञानिक ही कारण बहुत संभावना है कि ब्राह्मण के घर में ब्राह्मण का टाइप पैदा हो। थे। संबंध था नहीं जन्म के साथ वर्ण का, इसलिए फ्लुइडिटी थी, | संभावना है, निश्चय नहीं है। भूल-चूक हो सकती है। इसलिए और कोई विश्वामित्र यहां से वहां हो भी जाता था। संभावना थी | भूल-चूक के लिए तरलता थी, थोड़ी यात्रा हो सकती थी। कि एक वर्ण से दूसरे वर्ण में यात्रा हो जाए। लेकिन जैसे ही यह ___ इन चार हिस्सों में जो स्ट्रैटिफिकेशन किया गया समाज का, चार सिद्धांत खयाल में आ गया और इस सिद्धांत की परम प्रामाणिकता | | हिस्सों में तोड़ दिया गया, ये चार हिस्से नीचे-ऊपर की धारणा से सिद्ध हो गई कि प्रत्येक व्यक्ति अपने वर्ण से ही, अपने स्वधर्म से | बहुत बाद में भरे। पहले तो एक बहुत वैज्ञानिक, एक बहुत ही सत्य को उपलब्ध हो सकता है, तो एक बहुत जरूरी बात पैदा | मनोवैज्ञानिक प्रयोग था, जो इनके बीच किया गया। ताकि आदमी हो गई और वह यह कि यह पता कैसे चले कि कौन व्यक्ति किस | पहचान सके कि उसके जीवन का मौलिक, उसके जीवन का वर्ण का है! अगर जन्म से तय न हो, तो शायद ऐसा भी हो सकता | मौलिक पैशन, उसके जीवन की मौलिक वासना क्या है। क्योंकि है कि एक आदमी जीवनभर कोशिश करे और पता ही न लगा पाए | | वह उसी वासना से यात्रा करके निर्वासना तक पहुंच सकता है। कि वह किस वर्ण का है। उसका क्या है झकाव, वह क्या होने को कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि तू क्षत्रिय है। और सब बातें छोड़ पैदा हुआ है—पता ही कैसे चले? तो फिर सुगम यह हो सकता है | दे, तो भी मैं तुझे कहता हूं कि तेरे लिए यही उचित है, तू लड़ने से कि अगर जन्म से कछ निश्चय किया जा सके।
मत भाग। तू लड़। तू लड़ ही सकता है। तेरा सारा व्यक्तित्व ही योद्धा लेकिन जन्म से निश्चय किया कैसे जा सके? कोई आदमी किसी | का व्यक्तित्व है। तू हाथ में किताब लेकर नहीं बैठ सकता। हाथ में के घर में पैदा हो गया, इससे तय हो जाएगा? कोई आदमी किसी के | किताब रहेगी, लेकिन तेरे प्राणों तक किताब नहीं पहुंच सकती। तू घर में पैदा हो गया, ब्राह्मण के घर में, तो ब्राह्मण हो जाएगा? सेवा करने की फिक्र में पड़ जाए कि सेवक हो जाऊं, लोगों के पैर
जरूरी नहीं है। लेकिन बहुत संभावना है। प्रोबेबिलिटी ज्यादा | दबाऊं, तो तेरे हाथ पैर दबाते रहेंगे, तेरी आत्मा वहां नहीं होगी। तू है। और उस प्रोबेबिलिटी को बढ़ाने के लिए, सर्टेन करने के लिए | धन कमाने में लग जा, तो तू रुपये इकट्ठा करता रहेगा, लेकिन वे बहुत से प्रयोग किए गए। बड़े से बड़ा प्रयोग यह था कि ब्राह्मण | | रुपये तेरे लिए निर्मूल्य होंगे; उनका मूल्य नहीं होगा। को एक सनिश्चित जीवन व्यवस्था दी गई, एक डिसिप्लिन दी गई। मूल्य रुपये में नहीं होता, मल्य व्यक्ति के वर्ण में होता है। उससे यह डिसिप्लिन इसलिए दी गई कि इस आदमी को या इस स्त्री को | | रुपये में आता है। मूल्य रुपए में नहीं होता, मूल्य व्यक्ति के वर्ण जो नई आत्मा अपने गर्भ की तरह चुनेगी, तो उस आत्मा को बहुत | | में होता है। अगर वैश्य के हाथ में रुपया आ जाए तो उसमें मल्य स्पष्ट हो जाना चाहिए कि वह उसके टाइप से मेल खाता है कि नहीं | | होता है, क्षत्रिय के हाथ में रुपये का इतना ही मूल्य हो सकता है कि खाता है।
वह तलवार खरीद ले, इससे ज्यादा मूल्य नहीं होता। इंट्रिंजिक इसलिए मैंने परसों आपसे कहा कि वर्णसंकर होने के डर से वैल्यू नहीं होती रुपये की क्षत्रिय के हाथ में; हां, एक्सटर्नल वैल्यू नहीं, क्योंकि वर्णसंकर से तो बहुत ही विकसित व्यक्तित्व पैदा हो हो सकती है कि एक तलवार खरीद ले। सकते हैं, लेकिन दो जातियों में शादी न हो, उसका कारण बहुत । एक ब्राह्मण के हाथ में रुपये का कोई मतलब नहीं होता, कोई दूसरा था। उसका कुल कारण इतना था कि हम प्रत्येक वर्ण को एक मतलब ही नहीं होता; ठीकरा होता है। इसलिए ब्राह्मण रुपये को स्पष्ट फार्म, एक रूप दे देना चाहते थे। और प्रत्येक वर्ण को इतना ठीकरा कहते रहेंगे। वैश्य की समझ में कभी नहीं आता कि बात
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