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गीता दर्शन भाग-1 AM
भी नहीं था। वह उसके पीछे भागा और चिल्लाया, मैं लुट गया। | का अपना ही चुनाव है कि वह खोए और पाए। परमात्मा संसार में तुम आदमी कैसे हो! गांव परिचित था फकीर का, अमीर का तो | अपने को खोकर पा रहा है; खोता रहेगा, पाता रहेगा; अंधेरे में परिचित नहीं था। गली-कूचे वह चक्कर देने लगा। सारा गांव जुट | उतरेगा और प्रकाश में आकर जागेगा कि प्रकाश है। गया। गांव भी पीछे भागने लगा। अमीर चिल्ला रहा है, छाती पीट ___ इसलिए कृष्ण से अगर हम पूछेगे, तो वे कहेंगे, लीला रहा है, आंख से आंसू बहे जा रहे हैं। और वह कह रहा है, मैं लुट | | है-अपने से ही अपने को छिपाने की, अपने से ही अपने को गया; मैं मर गया; मेरी जिंदगीभर की कमाई है। उसी के सहारे मैं | | खोजने की, अपने से ही अपने को पाने की-लीला है, बहुत
आनंद को खोज रहा है: अब क्या होगा! मेरे दुख का कोई अंत नहीं गंभीर मामला नहीं है। बहुत सीरियस होने की जरूरत नहीं है। है। मुझे बचाओ किसी तरह इस आदमी से; मेरा धन वापस | इसलिए कृष्ण से ज्यादा नान-सीरियस, गैर-गंभीर आदमी खोजना दिलवाओ। वह गांवभर में चक्कर लगाकर भागता हुआ फकीर मुश्किल है। और जो गंभीर हैं, वे खबर देते हैं कि उन्हें जीवन के वापस उसी झाड़ के नीचे आ गया, जहां अमीर का घोड़ा खड़ा था। | पूरे राज का अभी पता नहीं चला है। जीवन का पूरा राज यही है कि झोला जहां से उठाया था वहीं पटककर, जहां बैठा था वहीं झाड़ के | जिसे हम तलाश रहे हैं, उसे हमने खोया है। जिसे हम खोज रहे हैं, पास फिर बैठ गया।
उसे हमने छिपाया है। जिसकी तरफ हम जा रहे हैं, उसकी तरफ से ___ पीछे से भागता हुआ अमीर आया और सारा गांव। अमीर ने हम खुद आए हैं। झोला उठाकर छाती से लगा लिया और भगवान की तरफ हाथ | | पर ऐसा है। और आप पूछे, क्यों है? तो उस क्यों का कोई उत्तर उठाकर कहा, हे भगवान, तेरा परम धन्यवाद! फकीर ने पूछा, कुछ | नहीं है। एक क्यों तो जरूर जिंदगी में होगा, जिसका कोई उत्तर नहीं आनंद मिला? उस अमीर ने कहा, कुछ ? बहुत-बहुत मिला। ऐसा | होगा। वह क्यों हम कहां जाकर पकड़ते हैं, यह दूसरी बात है। आनंद जीवन में कभी भी नहीं था। उस फकीर ने कहा, आनंद के | | लेकिन अल्टिमेट व्हाई, आखिरी क्यों का कोई उत्तर नहीं हो सकता पहले दखी होना जरूरी है: पाने के पहले खोना जरूरी है: होने के है। नहीं हो सकता, इसीलिए फिलासफी, दर्शनशास्त्र फिजूल के पहले न होना जरूरी है: मुक्ति के पहले बंधन जरूरी है; ज्ञान के चक्कर में घम जाता है। वह क्यों की तलाश करता है। पहले अज्ञान जरूरी है; प्रकाश के पहले अंधकार जरूरी है। इसको थोड़ा समझ लेना उचित है।
इसलिए आत्मा एक यात्रा पर निकलती है, वह धन खोने की दर्शनशास्त्र क्यों की तलाश करता है-ऐसा क्यों है? एक यात्रा है। असल में जिसे हम खोते नहीं, उसे हम कभी पाने का | कारण मिल जाता है; फिर वह पूछता है, यह कारणं क्यों है? फिर अनुभव नहीं कर सकते। और इसलिए जब जिन्होंने पाया है, जैसे | | दूसरा कारण मिल जाता है; फिर वह पूछता है, यह कारण क्यों है? कृष्ण, जैसे बुद्ध...जब बुद्ध को मिला ज्ञान, लोगों ने पूछा, क्या | | फिर इनफिनिट रिग्रेस हो जाता है। फिर अंतहीन है यह सिलसिला। मिला? तो बुद्ध ने कहा, मिला कुछ भी नहीं। जो मिला ही हुआ और हर उत्तर नए प्रश्न को जन्म दे जाता है। हम कोई भी कारण था, उसको जाना भर। लेकिन बीच में खोना जरूरी था। स्वास्थ्य | | खोज लें, फिर भी क्यों तो पूछा ही जा सकता है। ऐसा कोई कारण का अनुभव करने के लिए भी बीमार होना अनिवार्य प्रक्रिया है। | हो सकता है क्या, जिसके संबंध में सार्थक रूप से क्यों न पूछा जा ऐसा जीवन का तथ्य है। ऐसी फैक्टिसिटी है।
सके? नहीं हो सकता। इसलिए दर्शनशास्त्र एक बिलकुल ही अंधी तो जब आप पूछते हैं, क्या जरूरत है आत्मा को संसार में जाने | गली है। की? तो मैं कहता हूं, मुक्ति के अनुभव के लिए। और आत्मा | | | विज्ञान नहीं पछता-क्यों विज्ञान पछता है क्या. व्हाट) संसार में आने के पहले भी मुक्त है, लेकिन उस मुक्ति का कोई इसलिए विज्ञान अंधी गली नहीं है। धर्म भी नहीं पूछता—क्यों? बोध नहीं हो सकता; उस मुक्ति की कोई प्रतीति नहीं हो सकती; | | धर्म भी पूछता है-व्हाट, क्या? इसे समझ लेना आप। उस मुक्ति का कोई एहसास नहीं हो सकता। खोए बिना एहसास | | विज्ञान और धर्म बहुत निकट हैं। विज्ञान की भी दुश्मनी अगर असंभव है।
है, तो फिलासफी से है। और धर्म की भी अगर दुश्मनी है, तो इसलिए संसार एक परीक्षण है। संसार एक एक्सपेरिमेंट है, फिलासफी से है। आमतौर से ऐसा खयाल नहीं है। लोग समझते स्वयं को खोने का। संसार इससे ज्यादा कुछ भी नहीं है। यह आत्मा हैं कि धर्म तो खुद ही एक फिलासफी है।