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गीता दर्शन भाग-14
कांफ्लिक्ट, संतापग्रस्त मन, खंड-खंड टूटे हुए संकल्प को अखंड और इंटिग्रेट करने की... कहें कि वे पहले आदमी हैं, जो साइको - एनालिसिस का, मनस- विश्लेषण का उपयोग करते हैं । सिर्फ मनस-विश्लेषण का ही नहीं, बल्कि साथ ही एक और दूसरी बात का भी, मनस-संश्लेषण का भी, साइको-सिंथीसिस का भी ।
तो कृष्ण सिर्फ फ्रायड की तरह मनोविश्लेषक नहीं हैं; वे संश्लेषक भी हैं। वे मन की खोज ही नहीं करते कि क्या-क्या खंड हैं उसके ! वे इसकी भी खोज करते हैं कि वह कैसे अखंड, इंडिविजुएशन को उपलब्ध हो; अर्जुन कैसे अखंड हो जाए !
और यह अर्जुन की चित्त - दशा, हम सबकी चित्त - दशा है। लेकिन, शायद संकट के इतने तीव्र क्षण में हम कभी नहीं होते । हमारा संकट भी कुनकुना, ल्यूक-वार्म होता है, इसलिए हम उसको सहते चले जाते हैं। इतना ड्रामैटिक इतना त्वरा से भरा, इतना नाटकीय संकट हो, तो शायद हम भी अखंड होने के लिए आतुर हो जाएं। मैंने सुना है कि एक मनोवैज्ञानिक ने एक उबलते हुए पानी की बाल्टी में एक मेंढक को डाल दिया। वह मेंढक तत्काल छलांग लगाकर बाहर हो गया। वह मेंढक अर्जुन की हालत में पड़ गया था। उबलता हुआ पानी, मेंढक कैसे एडजस्ट करे ! छलांग लगाकर बाहर हो गया। फिर उसी मनोवैज्ञानिक ने उसी मेंढक को एक दूसरी बाल्टी में डाला और उसके पानी को धीरे-धीरे गरम किया, चौबीस घंटे में उबलने तक लाया वह । करता रहा धीरे -धीरे गरम। वह जो मेंढक था, हम जैसा, राजी होता गया। थोड़ा पानी गरम हुआ, मेंढक भी थोड़ा गरम हुआ। उस मेंढक ने कहा, अभी ऐसी कोई छलांग लगाने की खास बात नहीं है; चलेगा। वह एडजस्टमेंट करता चला गया, जैसा हम सब करते चले जाते हैं। चौबीस घंटे में वह एडजस्टेड हो गया। जब पानी उबला, तब एडजस्टेड रहा, क्योंकि अभी उसे कोई फर्क नहीं मालूम पड़ा । रत्ती - रत्ती बढ़ा। एक रत्ती से दूसरी रत्ती में कोई छलांग लगाने जैसी बात नहीं थी। उसने कहा कि इतने से राजी हो गए, तो इतने से और सही। वह मर गया। पानी उबलता रहा, वह उसी में उबल गया, छलांग न लगाई। मेंढक छलांग लगा सकता था। अब मेंढक को छलांग लगाने से ज्यादा स्वाभाविक और कुछ भी नहीं है, मगर वह भी न हो सका।
अर्जुन उबलते हुए पानी में एकदम पड़ गया है। इसलिए सिचुएशन ड्रामैटिक है, सिचुएशन एक्सट्रीम है। वह ठीक स्थ पूरी उबलती हुई है। इसलिए अर्जुन एकदम धनुषबाण छोड़ दिया।
हम अपनी तराजू भी नहीं छोड़ सकते इस तरह, हम अपना गज भी | नहीं छोड़ सकते इस तरह, हम अपनी कलम भी नहीं छोड़ सकते | इस तरह । और रथ पर ही बैठने में एकदम इतना कमजोर हो गया ! | क्या हुआ ? संकट से इतनी तीव्रता से राजी होना, एडजस्ट होना मुश्किल हो गया।
मैं आपसे कहना चाहूंगा कि राजीं मत होते चले जाना। नहीं सबको ऐसे मौके नहीं आते कि महाभारत हो हरेक की जिंदगी में। और बड़ी कृपा है भगवान की, ऐसा हरेक आदमी को महाभारत का मौका लाना पड़े, तो कठिनाई होगी बहुत ।
लेकिन जिंदगी महाभारत है, पर लंबे फैलाव पर है! त्वरा नहीं है उतनी तीव्रता नहीं है उतनी । सघनता नहीं है उतनी । धीमे-धीमे सब होता रहता है। मौत आ जाती है और हम एडजस्ट होते चले | जाते हैं; हम समायोजित हो जाते हैं। और तब जिंदगी में क्रांति नहीं हो पाती है।
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अर्जुन की जिंदगी में क्रांति निश्चित है। इधर या उधर, उसे क्रांति गुजरना ही पड़ेगा। पानी उबलता हुआ है। ऐसी जगह है, जहां | उसे कुछ न कुछ करना ही होगा। या तो वह भाग जाए, जैसा कि बहुत लोग भाग जाते हैं। सरल वही होगा । शार्ट कट वही है । निकटतम यही मालूम पड़ता है, भाग जा
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इसलिए अधिक लोग जीवन के संकट में से भागने वाला संन्यास निकाल लेते हैं। अधिक लोग जीवन के संकट में से एस्केपिस्ट रिनंसिएशन निकाल लेते हैं, एकदम जंगल भाग जाते हैं। वे कहते हैं, नहीं, अहमदाबाद नहीं, हरिद्वार जा रहे हैं। अर्जुन वैसी स्थिति में था। हालांकि गीता वे अपने साथ ले जाते हैं। | तब बड़ी हैरानी होती है। हरिद्वार में गीता पढ़ते हैं । अर्जुन भी पढ़ सकता था। हरिद्वार वह भी जाना चाहता था। लेकिन वह उसको एक गलत आदमी मिल गया, कृष्ण मिल गया। उसने कहा कि रुक; भाग मत !
क्योंकि भगोड़े परमात्मा तक पहुंच सकते हैं? भगोड़े परमात्मा तक नहीं पहुंच सकते। जो जीवन के सत्य से भागते हैं, वे परमात्मा तक नहीं पहुंच सकते हैं। जो जीवन का ही साक्षात्कार करने में | असमर्थ हैं, वे परमात्मा का साक्षात्कार नहीं कर सकते हैं। क्योंकि | जो जीवन को ही देखकर शिथिल-गात हो जाते हैं, जिनके गांडीव छूट जाते हैं हाथ से, जिनके रोएं कंपने लगते हैं और जिनके प्राण थरथराने लगते हैं— जीवन को ही देखकर - नहीं, परमात्मा के समक्ष वे खड़े नहीं हो सकेंगे।
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