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HTA दलीलों के पीछे छिपा ममत्व और हिंसा -
एक है। लेकिन वे इशारे मन के भीतर हैं। मन के पार दिखाने वाले सामाजिक चिंतना है, सोशल कोड है। मनु का वचन अध्यात्म नहीं हैं, लेकिन मन के भीतर हैं। और उनका विज्ञान तो मनोविज्ञान है; | है। मनु का वचन तो मनस भी नहीं है, मनोविज्ञान भी नहीं है। मनु उनका आधार तो मनोविज्ञान है। शास्त्र की ऊंची से ऊंची ऊंचाई का वचन तो सामाजिक रीति-व्यवहार की व्यवस्था है। इसलिए मनस है। शब्द की ऊंची से ऊंची संभावना मनस है। अभिव्यक्ति | मनु को जोड़ना हो अगर, तो उसे जोड़ना पड़ेगा मार्क्स से, उसे की आखिरी सीमा मनस है। जहां तक मन है, वहां तक प्रकट हो | | जोड़ना पड़ेगा दुर्थीम से, इस तरह के लोगों के साथ। मनु का कोई सकता है। जहां मन नहीं है, वहां सब अप्रकट रह जाता है। बहुत गहरा सवाल नहीं है।
तो जब मैंने गीता को मनोविज्ञान कहा, तो मेरा अर्थ नहीं है कि मनु सामाजिक व्यवस्थापक हैं। और समाज की कोई भी वाटसन के मनोविज्ञान जैसा मनोविज्ञान, कोई बिहेवियरिज्म, कोई व्यवस्था चरम नहीं है। समाज की सभी व्यवस्थाएं सामयिक हैं। व्यवहारवाद। या पावलोव का विज्ञान, कोई कंडीशंड रिफ्लेक्स। जो व्यक्ति भी थोड़ा चिंतन करेगा, उसका चिंतन निरंतर समाज की ये सारे के सारे मनोविज्ञान अपने में बंद हैं और मन के आगे किसी व्यवस्था के ऊपर चला जाएगा। क्योंकि समाज की व्यवस्था सत्ता को स्वीकार करने को राजी नहीं हैं। कुछ तो मन की भी सत्ता अंतिम व्यक्ति को ध्यान में रखकर बनाई गई होती है। स्वीकार करने को राजी नहीं हैं। वे तो कहते हैं, मन सिर्फ शरीर का _ जैसे कहा जाता है कि योग्य शिक्षक वही है, जो अपनी कक्षा में ही हिस्सा है। मन यानी मस्तिष्क। मन कहीं कुछ और नहीं है। यह | अंतिम विद्यार्थी को ध्यान में रखकर बोलता हो। निश्चित ही योग्य हड्डी-मांस-पेशी, इन सबका ही विकसित हिस्सा है। मन भी शरीर | शिक्षक वही है, जो कक्षा में अंतिम व्यक्ति को ध्यान में रखकर से अलग कुछ नहीं है।
| बोलता हो। लेकिन तब जो कक्षा में प्रथम व्यक्ति है, उसके लिए गीता ऐसा मनोविज्ञान नहीं है। गीता ऐसा मनोविज्ञान है, जो मन | शिक्षक तत्काल बेकार हो जाता है। के पार इशारा करता है। लेकिन है मनोविज्ञान ही। अध्यात्म-शास्त्र समाज की व्यवस्था में तो अंतिम व्यक्ति को ध्यान में रखा जाता उसे मैं नहीं कहूंगा। और इसलिए नहीं कि कोई और अध्यात्म-शास्त्र है और जड़ नियम स्थापित किए जाते हैं। अर्जुन साधारण व्यक्ति है। कहीं कोई शास्त्र अध्यात्म का नहीं है। अध्यात्म की घोषणा ही | नहीं है, मीडियाकर माइंड नहीं है; अर्जुन चिंतनशील है, मेधावी है; यही है कि शास्त्र में संभव नहीं है मेरा होना, शब्द में मैं नहीं असाधारण प्रतिभाशाली है; जिंदगी उसके लिए सोच-विचार बन समाऊंगा, कोई बुद्धि की सीमा-रेखा में नहीं मुझे बांधा जा सकता। जाती है। जो सब सीमाओं का अतिक्रमण कर जाता है, और सब शब्दों को । अब मनु कहते हैं कि जो आततायी है, उसे तो मार देने में कोई व्यर्थ कर जाता है, और सब अभिव्यक्तियों को शून्य कर जाता बुराई नहीं है। विचारशील को इतना आसान नहीं है मामला। कौन है-वैसी जो अनुभूति है, उसका नाम अध्यात्म है।
आततायी है? और आततायी हो भी, तब भी मारना उचित है या नहीं उचित है? फिर आततायी अपना है, मनु को उसका खयाल भी
नहीं है। आततायी में मानकर चला गया है कि वह दुश्मन है। यहां प्रश्न : भगवान श्री, कहीं ऐसा मनु-वचन है कि जहां आततायी अपना है। और एक व्यक्ति नहीं है, लाखों व्यक्ति हैं। आततायी को मारने के लिए उन्होंने निर्देश दिया है, | और उन लाखों से लाखों तरह के निकट संबंध हैं। आततायिनम् आयन्तं अन्यादेवऽविचारतः। शास्त्राज्ञा इसलिए अर्जुन की स्थिति बहुत भिन्न है। वह साधारण आततायी तो है ऐसी और अर्जुन यह भी जानता है कि दुर्योधन | की, हमलावर की, और जिसके ऊपर हमला हुआ है, उसकी नहीं आदि सब आततायी हैं, और तब भी उनको मारने से | है। वही तो वह चिंतन कर रहा है, वही तो वह कह रहा है कि अगर उसका जी हिचकिचाता है। तो इसका कारण क्या है? | इन सब को मारकर राज्य को भी पा लें, तो क्या यह सौदा उचित
| है? वह वही पूछ रहा है। इन सबको मारकर राज्य को पा लेना,
| क्या सौदा उचित है? क्या इतनी कीमत पर राज्य को ले लेना कुछ 5 क तो मनु जो कहते हैं, वह सिर्फ सामाजिक नीति है, ।। | सार्थकता रखता है? वह यही पूछ रहा है। ५ सोशल इथिक्स है। मनु जो कहते हैं, वह केवल यह जो अर्जुन की मनोदशा है, मनु के जो नियम हैं, उन नियमों
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