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अतिचार के विषय में प्रश्न और उनके उत्तर
संक्षेप में मतलब यह है कि जिससे प्राणातिपात विरमण रूप मूलगुण को बाधा न पहुँचे वैसा यत्न करना चाहिये।
यहां कोई यह पूछे कि- इसने तो प्राणियों की हिंसा करने ही का त्याग किया है, बंधादिक का प्रत्याख्यान तो लिया ही नहीं है अतः उसमें इसे क्या दोष है ? क्योंकि अंगीकृत त्याग अखंड रहता है अब यदि कहा जाय कि-बंध आदि का भी उसने प्रत्याख्यान किया है तो उससे उनको व्रतभंग होवेगा ही क्योंकिविरति खंडित हो गई । अतः अतिचार कहां रहे ? तथा बंध आदि को भी जो प्रत्याख्यान में लिया जावे तो प्रस्तुत व्रत संख्या टूटेगी, क्योंकि बंध आदि पृथक् २ व्रत हो जावेगें उसका यह उत्तर है कि- मुख्यवृत्ति से तो उसने प्राणातिपात ही को प्रत्याख्यान किया है, न कि बंधादिक को, तथापि उसके प्रत्याख्यान में अथे द्वारा वह भी प्रत्याख्यान हुआ ही जानना चाहिये क्योंकि- वे प्राणातिपात के कारणभूत हैं।
अब जो वे भी प्रत्याख्यान हैं तो उनके करने से व्रतमंग होवे, अतिचार कैसा?
उत्तर-ऐसा मत बोलो-क्योंकिव्रत दो प्रकार का है, अंतरवृत्ति से और बहिर्वृत्ति से, उसमें मारता हूँ ऐसे संकल्प से रहित होते भी कोपादिक के आवेश से दसरे के प्राण जाते रहेंगे (वा नहीं ) ? उसकी अपेक्षा याने परवाह रखे बिना बंध आदि में प्रवर्तित होवे, उस पर भी सामने वाले जीव का आयुष्य बलवान होने से उस जन्तु का मरण भी न हो, तथापि बांधने वाले को दया का परिणाम न होने से और विरति की परवाह न रखने से अन्तर्वृत्ति से तो व्रत का भंग ही हुआ किन्तु बहित्ति से प्राणी का घात न होने