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प्रथम अणुव्रत के अतिचार
करता हूँ, निंदा करता हूँ, तिरस्कार करता हूँ और वैसे परिणाम को दूर करता हूं।
यहां संकल्प से याने मारने की बुद्धि का आश्रय लेकर प्रत्याख्यान है, न कि आरंभ से भी क्योंकि गृहस्थ से आरंभ नहीं रुक सकता है। ... उक्त व्रत वाले ने ऐसे पांच अतिचार से दूर रहना चाहिये, वे ये हैं:-बंध, वध, छविच्छेद, अति भारारोपण और भक्तपान व्यवच्छेद, उसमें बंध याने मनुष्य व बैल आदि को रस्सी आदि से बांध रखना, वह दो प्रकार से किया जाता है स्वार्थ के हेतु व निरर्थक, वहां विवेकी ने निरर्थक बंध कभी भी न करना चाहिये। . स्वार्थ के हेतु वध भी दो प्रकार का है सापेक्ष घ निरपेक्ष । उसमें जब चौपायों वा चौरादिक को आग में जल जाने का भय न रखते, निर्दयता से, मजबूती से अत्यन्त कसकर बांधा जावे वह निरपेक्ष वंध है, और जब जानवरों को इस प्रकार बांधा जावे कि आग में वे छूट सकें तथा दास, दासी, चोर अथवा पढ़ने में आलसी पुत्रादिक को वे मर न जावे ऐसा भय रखकर दया पूर्वक बांधे गये हों कि- जिससे वे शरीर हिला डुला सक, व आग में जल न सके उसे सापेक्ष बंध कहते हैं।
यहां जिनेन्द्र का ऐसा उपदेश है कि श्रावक ने ऐसे ही पशु रखना चाहिये कि-वे बिना बांधे भी वैसे ही रहें तथा उनको प्रभाव से ही वश में रखना कि-जिससे बांधे बिना ही केवल दृष्टि फिराने ही से चाकर आदि डटकर सीधे चलें कदाचित् इससे भी कोई न माने तो, उपरोक्तानुसार सापेक्ष बंध करने से भी व्रत में बाधा नहीं आती, किन्तु निरपेक्षता से बांधे तो व्रतातिचार लगता है।