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प्रथम अणुव्रत का स्वरूप और उसके भेद
ये भंग अक्षर संचारण से अपनी बुद्धि द्वारा जान लेने चाहिये इस प्रकार अनेक प्रकार से व्रतों के भंगों को जाने तथा व्रतों के भेद याने सापेक्ष - निरपेक्ष आदि प्रकार तथा वध-बंधारिक अतिचारों को जानें |
यह आशय है - यहां श्रावक के पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षा व्रत हैं । वहाँ अणु याने लघु व्रत सो अगुवत अथवा असु याने गुणों को अपेक्षा से यति से लघु श्रावक के व्रत सो अणुव्रत अथवा देशना के समय महाव्रतों को प्ररूपणा के पश्चात् प्ररूपण किये जाने वाले व्रत सो अगुव्रत क्योंकि प्रथम श्रवण करने वाले को महाव्रत कहे जाते हैं. तदनंतर वह स्वीकार न कर सके तो फिर अणुव्रत कहे जाते हैं ।
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क्योंकि कहा है किः यति धर्म ग्रहण करने में असमर्थ को साधु ने अणुव्रत की देशना तो भी देना चाहिये ।
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वे अणुव्रत पांच है--'स्थूल प्राणातिपात विरमण आदि उसमें जिनको अन्य तीर्थ वाले भी प्रायः प्राणित्व से स्वीकार करते हैं, वे द्वींद्रियादिक स्थूल हैं वे उश्वास आदि प्राण के योग से प्राण रूप में बोलते स्थूल प्राण कहलाते हैं उनके योग से वे ही कहे जा सकते हैं जैसे कि - दंड के योग से पुरुष को भी दंड कहा जाक है उक्त स्थूल प्राणों का अतिपात याने वध अर्थात् हिंसा, उससे विरमण याने संकल्पाश्रयी प्रत्याख्यान सो प्रथम अणुव्रत है ।
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प्रत्याख्यान आवश्यकचूर्णि में इस प्रकार कहा है:स्थूल प्राणातिपात को संकल्प से छोड़ता हूँ जीवन पर्यन्त द्विविध त्रिविध भंग से याने कि मन, वचन व काया से उसको न करू ं, न कराऊं । हे पूज्य ! उस विषय की भूल से प्रतिक्रमण