Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 02
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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कल्पप्रकरणम् ] द्वितीयो भागः।
[८१] एवं कल्पो विधातव्यो सुखं जीवितुमिच्छभिः। कषायश्च्छिन्नरोहाया निहन्याद्विषमज्वरम् । अमृतायाःशिवः सौम्यो धमृतोपमलाभदः ॥ रात्रिज्वरं ज्वरं जीर्ण तृतीयकचतुर्थको ॥
मकरध्वज (अथवा रस सिन्दूर) और गिलोयका सत समान भाग लेकर एकत्र खरल करके निःक्काथोऽमृतवल्लयास्तु शुण्ठीचूर्णसमन्वितः । उसे संभलके रसकी ५० भावना दे लीजिए।
पीतो हन्ति कटीपृष्ठपादजोरुजां रुजम् ।। ___ इसे प्रतिदिन प्रातःकाल ८ माशेकी मात्रानुसार सेंभलके रसके साथ सेवन करनेसे ३ मास के
अमृतायाः पलशतं चूर्णीकृत्य तुलाधृतम् । पश्चात् बाल भौं रेके समान काले हो जाते हैं, ६
घृतक्षौद्रगुडं चाथ सर्वमेकत्र संलिहेत् ।। मासके सेवनसे शरीर अजर अमर और १० मास
यथाग्न्यभ्यवहारस्तु नरो हितमिताशनः । पर्यन्त सेवन करनेसे रूप कामदेवके समान सुन्दर
नास्थकश्चिद्भवेद्याधिन जरा पलितं न च ॥ हो जाता है, तथा १ वर्ष पर्यन्त सेवन करनेसे
न गृध्रसी न घातामृङ् न चैव विषमज्वरः ।
न च नेत्रगता रोगा परं चैतद्रसायनम् ॥ शरीरके समस्त धातुओंकी वृद्धि होती है।
मेधाकर त्रिदोषघ्नं, प्रयोगादस्य बुद्धिमान् । सुखाभिलाषी यथेच्छाहार विहारी बुद्धिमान् ! मनुष्यको इस अमृतके समान लाभदायक, और
जीवेद्वर्षशतं पूर्ण यथैकं दिवसं तथा ॥ सौम्य अमृताकल्पका व्यवहार करना चाहिए।
स्वरसममृतवल्लया यः पिपेन्मासमेकम् प्रयोगकालमें तीक्ष्ण पदार्थ, मद्य, क्षार और
परिसृतघृतभक्षः क्षीरयूषौदनाशी । लवणका परित्याग करके तक अथवा दुग्धाहार |
वलिपलितविहीनः सर्वरोगैर्विमुक्तो करना चाहिए, एवं भूमिमें शयन करना चाहिए
तरुरिवनवपत्रः स्नेहकान्तिर्विभाति ॥ और स्वच्छ चित्त, सन्मित्रयुक्त, भक्तवत्सल, सत्य
गिलोयके, अंगूठेके पोरवे ( पर्व ) के समान धर्म परायण, निश्चिन्त, निर्विकार, और ब्रह्मचर्य पालनपूर्वक रहना चाहिए।
भोटे और बड़े टुकड़े करके धीमें भून लें और (
नि औषधिकया। उनमें से सात या नौ टुकड़े रोज़ खा लिया करें, तामष्ठपर्वमात्रां गुडूची परिकल्पिताम् ।
एवं इच्छानुसार आहार विहार करें । इस प्रयोगसे खण्डानि सर्पिषा भृष्टा खादेत्सप्त नवाथ च॥ तृष्णा, भ्रम, श्वास, कास शूल और कम्पनका नाश पुनः पुनः प्रतिदिनं यथेष्टाहारचेष्टितम् ।।
होता है। जयेतृष्णां भ्रमं श्वासं सकासं शूलवेपथुम् ॥
___ गुडूचीके काथमें अरण्डीका तेल मिलाकर पिबेन्नरोऽपि तत्काथमेरण्डस्नेहयोजितम् । । पीनेसे गृध्रसी, उदार्त और वातरक्त का समूल जयेद्गृध्रस्युदावर्त्त वातरक्तमशेषतः ॥ नाश हो जाता है।
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भा० ११
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